24 मई 2021, मुंबई,
शांति शिला दिखाई दे रही है..
भारत मे एक ब्रिटिश परिवार मे जन्मे प्रख्यात लेखक रुड्यार्ड किप्लिंग की लिखी पुस्तक "द जंगल बुक" शायद बहुतों ने पढ़ी होगी, या उसपर आधारित "द जंगल बुक" फिल्म या सिरियल देखी होगी. यह किताब भारत मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के घने जंगलों से प्रेरित है, इसे पेंच नेशनल पार्क या मोगली लैंड के नाम से भी जाना जाता है. सिवनी के संतबावड़ी गांव में सन 1831 में एक बालक मिला था, जिसका जीवन भेडिय़ों के साथ ही शुरू हुआ था और वह उन्ही की गुफा में रहता था, ब्रिटिश दस्तावेज में इसके साक्ष्य मिलते हैं, लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने मोगली के जीवन को कागज पर उतारा था.
इस कहानी के जंगल में साधारणतः सभी तरह के छोटे-बड़े प्राणी-पक्षी रहते हैं. वैसे तो इस जंगल मे साधारण जंगल का कानून ही चलता है, ठीक वैसे जैसे, फिल्म अग्निपथ मे विजय दीनानाथ चौहान कहते हैं, "यहा हर ताक़तवर कमजोर को निगल लेता है. चींटी को बीस्तुइया (छिपकली) खा जाती है, और बीस्तुइया को मेंढक निगल लेता है. मेंढक को साप निगल लेता है, और नेवला सांप को फाड़ खा जाता है. भेड़िया नेवले का खून चूस लेता है, और शेर भेड़िये को चबा जाता है. यहा हर कोई अपने से कमजोर को मार के खा जाता है. जीता है."
प्यास बुझाए और जान भी जाए
जंगलो में ज्यादातर शिकार झील के आसपास होती है, जब छोटे प्राणी पानी पीने आते है तो बड़े प्राणी घात लगाकर मार उनको गिराते है.लेकिन इस कहानी मे एक समय ऐसा आता है, जब बढ़ती गरमी से जंगल मे अकाल आता है, पानी के सभी स्त्रोत सिमटने लगते हैं.
यहां एक छोटी झील होती है, पानी सिमटने के वज़ह से झील के अंदर की एक पत्थर की शिला (चट्टान) बाहर दिखाई देती है. इसे शांती शिला कहते है, जिसका मतलब यह है कि जब तक वह दिखे तब तक हर प्राणी बेहिचक झील पर पानी पीने आ सकता है, झील के आसपास कोई प्राणी किसी का शिकार नहीं करेगा. मानो एक अलिखित सा नियम है, क्योंकि सभी पर आपदा जो आई है.
कहते है राजस्थान के रणथंभौर के जंगलों मे भी " द जंगल बुक" जैसे शांति शिला है, जहा पुराने दुश्मन एक दूसरे के सामने आते है, लेकिन प्यास बुझाने की जरूरत उनका समझौता कराती है.मानसून आने से पहले पानी की तलाश में ऊंचाई से उतरकर बाघ निचले पोखरों तक आते है. आजकल के मौसम मे यहां ऐसी तस्वीरें आम हैं, जंगल बुक की शांति शिला की तरह, यहां पानी का समझौता हुआ सा दिखाई देता है, क्योंकि बाघ जब भी पानी में पहुंचता है तो वहां के मगरमच्छ उसके सबसे बड़े और पुराने दुश्मन होते हैं, लेकिन गर्मी के इस मौसम मे यहां कुछ उलट होता है , बाघ को देखकर मगरमच्छ शवासन में चला जाता है, और बाघ उसे बस सूंघकर छोड़ देता है. यह है शांति शिला सा नजारा, एक दूसरे की जान के दुश्मन बाघ और मगरमच्छ एक छोटे से पोखर में शांत बैठे हैं, पीठ से पीठ सी मिलाए, मानो बाघ कह रहा है- "तुम पानी पर अपना राज करो लेकिन मुझे प्यास लगी है, पानी पीकर थोड़ा सुस्ताने दो. फिर मैं अपने रस्ते" , जंगल हो या धरती, आखिर, प्यास बड़ी चीज है,
खैर. ये तो जंगल है, इंसानो का शहर थोडेही है.
इंसानो की दुनिया निराली..
पिछले डेढ़ साल से इंसानो के जंगल, माने शहरो मे कोरोना महामारी आई है, जो पूरी तसल्ली से पूरी दुनिया में छा गई है. करोड़ों लोग संक्रमित हुए, लाखों की संख्या में मृत्यु हुए. जो आज भी जारी है. ना कोई देश छुटा है, ना कोई धर्म, ना कोई संप्रदाय, ना कोई जाति और ना ही कोई व्यवसाय छुटा. क्या अमीर, क्या गरीब, और क्या रसूखदार - इस महामारी ने किसी को नहीं छोड़ा. सर्वसमावेशी लगती है.
"जंगल बुक" की तरह मानवता के लिए यह समय "जंगल बुक" कहानी का वो शांति शिला दिखाई देने का समय है. एक दूसरे को साथ देने का, किसी पर भी किसी प्रकार का हमला, चोट, ना करने का. लेकिन...
यही पर प्राणी और मानवजाती का फरक सामने आ जाता है. आज दुनिया जुझ रही है, कैसे लोगों को बचाया जाए, कैसे संक्रमण कम किया जाए, कैसे अस्पतालों और सेवाओं को बढ़ाया जाए, कैसे आनेवाले नए संक्रमणो से बचा जाए, टीकाकरण कैसे बढ़ाया जाए, गरीबो के घर मे दवाई, खाने की व्यवस्था कैसे पहुंचाई जाए, अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए.. चुनौतियां अनेक है, हर देश की सरकार, हर देश का नेतृत्व, वहां की व्यवस्थाओ को साथ लेकर ईन चुनौतियों का सामना करने की भरसक कोशिश कर रहा है. इसमे भारत भी शामिल है. इस फरवरी तक तो भारत को इस लड़ाई का महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता था. तो फिर उसके बाद क्या हुआ?
क्या भारत में शांति शिला जैसा मेलजोल दिखाई दे रहा है?
शायद नहीं. उल्टे, यहां तो भाजपा विरोधी सभी राजनीतिक दल, प्रसार माध्यमों के कुछ लोग अपने-अपने खंजर बाहर निकाल कर बैठे हैं, मौका मिला, घोंप देते है. नए मौके की तलाश मे लगे पडे है. मौका नहीं मिलता तो बना लेते हैं, जैसे किसान आंदोलन. कोई गिद्ध (vulture) बना है, तो कोई शेर की खाल मे गीदड़ (hyena). कहीं भाजपा द्वेष, तो कभी मोदी द्वेष.
आज देश का नेतृत्व पूरी कठोरता से महामारी का मुकाबला करने में व्यस्त है. कई मेडिकल विशेषज्ञों ने ईन प्रयत्नों को माना है. फिर भी, कभी भारत मे इस वक़्त जो टीके उपलब्घ है उनकी उपयुक्तता पर सवाल उठा कर माहौल बिगाड़ने की राजनीति, तो कभी सभी को अभी इसी वक़्त टीका मिलना चाहिए इस पर लोगों को भड़काने की राजनीति.
इनसे सीखना जरूरी है..
पिछले पंधरा दिनों मे, विपक्ष क्या होता है, उसकी भूमिका क्या होती है, संजीदगी क्या होती है इसकी मिसाल इस्राइल के विरोधी नेता नफ्ताली बेनेट ने दी है. एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू मे वे बहुत साफ तौर पर कहते नजर आ रहे हैं, के, जो इस्राइल का दुष्मन वो मेरा भी दुश्मन. ये किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं है. युद्ध की स्थिति मे वे पूरी तरह से पंतप्रधान नेत्यान्याहु के साथ खडे है, पूरा देश एक है.
कोरोना महामारी युद्ध से कम कहा..
अब कई विशेषज्ञ भी मान रहे हैं के कोरोना महामारी एक जैविक युद्ध (biological warfare) है. विषाणू कहा से आया, कहा उसका नई प्रजाति बन रही है इसपर कुछ लोग नजर रखे होंगे ही. लेकिन इस महामारी से लढने के लिए काफी कुछ करना जरूरी है, साथ में कदम मिलाकर काम करने की जरूरत है.
यही है राइट टाइम बेबी (Time is Now)..
लेकिन कुछ राजनैतिक दलों, विदेशी पूंजी पुरस्कृत गैरसरकारी संस्थाओ (NGO), तथाकथित उदारमतवादी मीडिया, और अराजकता का माहौल बनाने के लिए जाने वाले अन्तराष्ट्रीय संगठनों के लिए काम करने वाले मीडियाकर्मियों के लिए शायद, यही सही मौका है / राइट टाइम है, नरेंद्र मोदी नामक प्रखर राष्ट्रवादी पंतप्रधान की साफ-सुथरी छवी को चोट पहुचाने का. सामान्य से सामान्य भारतीय नागरिक / मतदाता के हृदय मे उनकी कर्मयोद्धा की जो छवी हैउसको ज्यादा से ज्यादा धूमिल करने का. पंतप्रधान मोदी के आसपास के लोगों मे अविश्वास का माहौल बनाने का, पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों के वज़ह से पार्टी मे तनातनी का माहौल फैलाने का. और, आखिर मे, भाजपा मे ज्यादा से ज्यादा दरारे पैदा करने का.
चुनावी जीत के बाद के उन्माद मे पश्चिम बंगाल मे खूब हिंसा हुई, जिसमें भाजपा के स्थानिक कार्यकर्ताओं और उनके परिवारो पर जानलेवा हमले हुए, कईयों की तो मृत्यु भी हुई, महिलाओं पर भी अत्याचार हुए, कई लोग अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुए.
यहाँ भी शांति शिला जरुरी
सो, अगर हम पिछ्ले तीन हफ्तों की बात करे तो, पश्चिम बंगाल में उम्मीद से कम सीटें मिलने के बाद, और इस हिंसा से , जाहिर है कि कार्यकर्ताओं और पार्टी मे एक अजीब सा गुबार आया तो होगा ही. दिखाई भी दिया, हो सकता है आगे और भी दिखेगा. कहते हैं ना -
"ज़ख़्म दिखते नहीं अभी
लेकीन ठंडे होंगे तो दर्द निकलेगा
तैश (आवेश) उतरेगा वक्त का जब भी
चेहरा अन्दर से ज़र्द (फीका) निकलेगा"
सोशल मीडिया में कई पार्टी के कुछ मझोले रूप के नेता / कार्यकर्ता अपनी ही पार्टी के नेताओं और चुने हुए सांसद पर तीर साधते दिखाई दिए. पार्टी अध्यक्ष के धरने पर भी युवा पीढ़ी के कई कार्यकर्ताओं ने रोष जताया. प्रश्न उठाए. गृहमंत्री क्या कर रहे है सवाल उठाए गए. लेकिन अब ये लोग, "हमे, हमारे नेताओ को, पार्टी को सवाल पूछने का हक है, क्योंकि हम राष्ट्रभक्त है, और पार्टी का भला ही सोचते है" के नाम पर अपना आंगन संवार रहे हैं. पब्लिक प्लेटफॉर्म में आलोचना करके या सवाल पूछकर माफी मांगने के कार्यक्रम पहले भी हो चुके है. शायद कोई इनकी लाइन जानने का प्रयास करे. खैर.
माना के इनमे से कुछ शायद पार्टी के सच्चे हितचिंतक हो सकते हैं, लेकिन बहुसंख्य, या तो "ट्रोजन हॉर्स", या "रेमोरा फिश" या फिर "शेर की खाल मे भेड़िये" ही हो सकते है.
"ट्रोजन हॉर्स" भेजना कोई नई बात नहीं. जब पता चला कि आप भाजपा के कद्दावर नेतृत्व जैसे मोदी-शाह के आसपास फ़िरक़ नहीं सकते, या उनसे सीधे भिड़ने का माद्दा नहीं रखते, तब ये नीति अपनायी जाने की संभावना बनती है.
- अचानक से कोई सेलिब्रिटी या सोशल मीडिया (ट्विटर, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम) के तथाकथित प्रभावशाली व्यक्ती (influencer) को, राष्ट्रवाद, सुरक्षारक्षक, स्थानिक अस्मिता (जैसे महाराष्ट्र मे किले, स्वराज्य का इतिहास) और कट्टर हिन्दुत्व मे रुचि दिखाने लगता है
- रोचक ख़बरें और "अंदर" की जानकारी देकर पहले ये अपने फैन-फालोअर्स बढ़ाते है, फिर धीरे-धीरे राजनीति की बाते करना शुरू करते हैं, और फिर मोदी-शाह के बारे में तारीफे करना (जिसकी उन्हें कभी भी जरूरत नहीं होती). इनके पास पोलिटिकल गॉसिप का मटेरियल बड़ी मात्रा में होता है (कौन और कहा से मुहैय्या कराता है ये सोचने वाली बात है).
- इस दौरान कभी-कभी इनका भाजपा विरोधी दलों / लोगों से ऑनलाइन पंगा हो जाता है
- फिर कोई छोटी-मोटी केस, जिसमें बाद मे ये बरी हो जाते हैं. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के बाद ये, एक कट्टर हिंदू, भाजपा समर्थक और फिर कार्यकर्ता के रूप मे उभरते है.
- उसके बाद पार्टी के कुछ स्थानिक नेतागण से इनकी नजदीकियां बनती है. या नेतागण बढ़ाते है. और, यहा से इनका "भाजपा" अवतार शुरू होता है.
हारे नहीं फिर भी..
जबसे, भाजपा को पश्चिम बंगाल में अपेक्षा से कम सीटें मिली, तबसे मीडिया का एक धडा उसे भाजपा की हार, या मोदी-शाह की नाकामयाबी के रूप मे भुनाने की कोशिश कर रहा है. साथ ही मे कोरोना महामारी के दौरान विरोधी दलों का नकारात्मक रुख रहा है. इंटरनेशनल मीडिया मे भारत और खासकर मोदीजी पर बहुत ही घटिया स्तर की रिपोर्टिंग शुरू है. फेक न्यूज चलाए जा रहे हैं. सोशल मीडिया, जैसे ट्विटर, फ़ेसबुक, WhatsApp, सबके सब मोदी द्वेष से भरे पडे है. ये लोग मोदी, भाजपा द्वेष करते करते भारत द्वेष ना कर बैठे. वक़्त रहते इनपर सरकारी अंकुश / कंट्रोल आना चाहिए. खैर, ये एक अलग विषय है.
तो, ये जो सेलिब्रिटी / सोशल मीडिया influencer भाजपा के कट्टर समर्थक के रूप में उभरें थे, अब अचानक से ही, उन्हें भाजपा, मोदी, शाह, और नड्डा के हर कदम पर परेशानी है, उन्हें हर मामले मे सलाह देनी है, जो ये ऑनलाइन देते है और वो इनके हज़ारों फॉलोअर्स तक पहुंचती है. बंगाल मे पार्टी क्या कर रही है. धरना प्रदर्शन करके क्या होगा? बहुसंख्य लोग उसे उचित भी समझते है. इसका सीधा मतलब है, पार्टी के छवी मे छेद लगना शुरू हो गए. तो अब आप समझ गए होंगे, के इन तथाकथित सेलेब्रिटी या प्रभावशाली व्यक्तियों का खेल क्या था?
महज सीढ़ी..
राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, भाजपा, मोदी-शाह ये तो सिर्फ इन महानुभावों लिए महज़ सीढ़ियां है/थी, अपने सिक्के को स्थापित करने के लिए. इनका असली चेहरा तो अब नजर आ रहा है. खैर, यह तो पार्टी के ऊपर है, किसको हीरो बनाए और किसको झिरो. हालांकि, कुछ लोग कहेंगे यह सही वक़्त नहीं है इन चीजों का.
हम साथ साथ है ..
सहभोजिता (Commensalism) : अलग-अलग जाति के दो जीवों के एक साथ भोजन करने और रहने की ऐसी अवस्था जिसमें एक को लाभ किन्तु दूसरे को विशेष लाभ न होकर हानि भी नहीं पहुँचती. केवल एक प्रजाति को लाभ होता है. सहजीवन का एक अनूठा उदाहरण शार्क और रेमोरा का संबंध है, जो कई उष्णकटिबंधीय महासागरों में पाया जाता है, यह रिश्ता सदियों से विकसित हुआ है.
क्या है रेमोरा मछली?
ये एक छोटी मछली है जो आमतौर पर लंबाई में एक से तीन फीट के बीच में होती है. उनके सिर के ऊपर सक्शन कप की तरह एक अंग बना होता हैं - इस अंग का उपयोग रेमोरा मछली शार्क से चिपककर जुड़ जाने के लिए करती है. आमतौर पर वह शार्क के पेट के नीचे के हिस्से पर चिपक जाती हैं. रेमोरा व्हेल मछली के साथ भी जुड़ जाती हैं. शार्क और रेमोरा का संबंध दोनों को लाभ पहुंचाता है. रेमोरा शार्क द्वारा खाए गए शिकार के बचे हुए अवशेष खाने में माहिर हैं. एक तरह से रेमोरा मछली बढ़िया सहजिवी होती है,जो शार्क मछली को साफ रहने में मदद करती है.
एक दूजे के लिए..
पारस्परिक आश्रय (Mutualsim) : इसमे दोनों भागीदारों को लाभ होता है - जैसे मगरमच्छ और प्लोवर पक्षी. कई बार आपने मगरमच्छ को मुह खोले बैठा देखा होगा. थोडे देर बाद एक छोटा सा पक्षी उसके खुले मुह मे बेहिचक चला जाता है.आप सोचने लगते है कि यह साहसी पक्षी मगरमच्छ के मुंह में क्या कर रहा है? मगरमच्छ उसके साथ कुछ भी क्यों नहीं कर रहा है? इस छोटे पक्षी को मिस्र का प्लोवर पक्षी कहा जाता है. (Egyptian Plover bird). वह मगरमच्छ के मुंह में चला जाता है और उसके दांतों में फंसे भोजन के छोटे-छोटे टुकड़े बाहर निकालता है. वह उन्हें खाता है और अक्सर यह उसका आहार पूरा करती है. यह मगरमच्छ के दांतों को साफ करता है और उसके मुंह को ताजा और संक्रमण से मुक्त रखता है. तो, प्लोवर पक्षी को उसका भोजन मिलता है और मगरमच्छ के दात साफ हो जाते है. इस तरह, दोनों एक दूसरे की मदद कर देते हैं!
मैं तेरा खून पी जाऊँगा..
परजीवीवाद (Parasitism) : एक जीव (परजीवी) प्राप्त करता है, जबकि दूसरा (मेजबान) पीड़ित होता है. यह रिश्ता तो लगभग सब लोग जानते ही है. इसमे छोटे जंतू, बड़े पक्षी या प्राणी की त्वचा मे घुस कर उनका खून चूसते है. वैसे भी, खून चूसने वाले सभी जगह पाए जाते हैं.
हाथि तेज भी चलेगा और नाचेगा भी..
इंटरनेशनल मीडिया में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक हाथी के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह एक विशाल क्षमता वाला एक मजबूत जानवर है लेकिन यह धीमी गति से चलता है. लेकिन जब हाथी तेज चलता है तो जाहिर है कंपन तो होगा ही. जो पिछ्ले कुछ सालो मे शुरू भी हो चुका था. भारत के दुश्मनों को बस यही दिक्कत है - किसी तरह से देश में अराजकता का माहौल बना रहे, आंतरिक सुरक्षा बिगड़ जाए, और साथ ही मे देश की अर्थव्यवस्था फिसल जाए.
भाजपा के लिए सतर्कता जरुरी
महामारी से उबरने के लिए भारत जैसे देश को पाच आठ साल लग सकते हैं. इस वज़ह से, भारत में अगले कुछ सालों तक ना ही सिर्फ एक कर्मठ नेतृत्व की जरूरत है, बल्कि एक सशक्त सरकार होना भी जरूरी है. यह दोनों तभी मुमकिन होगा जब उस सरकार को चलाने वाले पार्टी की आंतरिक हालात बहुत ही सशक्त हो. जो, मोदी और शाह के बीच दरारे स्थापित करना चाह रहे हैं, उन्हें शायद इतिहास टटोलना चाहिए, यह दो व्यक्ति पिछले कितने सालों से कितने विपरित परिस्थितयों मे भी एक दूसरे के साथ रहे है. दरार करनेवालों ने तो तब भी अपना नसीब आजमाया होगा. जब तब नहीं हुआ, तो अब क्या होगा.
लेकिन, फिर भी अगर पार्टी को सशक्त रहना है, तो उन्हें, "पल दो पल के पैसेंजर", और उनके आकाओं से संभाल कर रहना होगा. जब जब, भाजपा सशक्त हो गई, तब, देश के सभी हिस्सों में कट्टरता - राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक, बढावा दिखाई देता है. नागरिकता कानून और कृषि कानून के बाद मे देश मे हुआ रक्तपात और हंगामा अभी भी ताजा है.
साल दर साल इस कट्टरता बढावा दिखाई दे रहा है - पहले यह जम्मू और कश्मीर तक सीमित था. लेकिन अब पश्चिम बंगाल, असम, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना यहा तक के अब तमिलनाडु में इसके नतीजे देखने को मिल रहे हैं. राजनीतिक तुष्टीकरण महाराष्ट्र में भी बढ़ रहा है.
इसका नतीज़ा, इंटरनेशनल मीडिया के साथ मिलकर यह चित्र बनाया जा रहा है के भारत में कट्टरवादी नेतृत्व है. अगर मोदी-शाह के अलावा भाजपा का कोई भी नेतृत्व करेगा तो उसे सौम्य समझा जाएगा. गौरतलब है कि, अपनी पूरी जिंदगी कौंग्रेस मे, एक परिवार के लिए दिनरात एक करने वाले, 23 कॉन्ग्रेस नेताओं ने पार्टी के नेतृत्व को प्रश्न किए. ऐसा प्रतीत किया जाता है कि G23 नाम से जाने वाले इस ग्रुप के नेताओं को पार्टी में अब वो स्थान नहीं. इक्का दुक्का नेता पार्टी नेतृत्व से ऐतराज कर सकता है, लेकिन तेईस (23)? क्या, G23 किसी तरह का आमंत्रण है किसी गुट के लिए? आज कॉन्ग्रेस ने उन्हें भले ही परे किया हो, लेकिन क्या उनमे से कोई कॉँग्रेस निकाल पाएगा?
चलते चलते..
कोरोना महामारी या जैविक युद्द जो भी हो, अब यह ग्लोबल महामारी बन गई है. यह कोई दो चार महीनों मे समाप्त होकर जाएगी ऐसा मानना अनुचित होगा. सौ साल पहले ऐसी कोई महामारी (स्पैनिश फ्लू) आई थी. इसलिए आज दुनिया मे जो भी जिवित है (चंद हज़ारों लोग छोड़कर - जिनकी उम्र सौ साल से अधिक है) , उनमे से किसीको भी किसीभी महामारी से लड़ने का स्वानुभव नहीं है.
भारत मे आज एक निश्चायक नेतृत्व है. भारतीय वैज्ञानिकों ने देश में कोरोना विरोधी टीके /वैक्सीन का उत्पादन कर दुनिया को ये दिखला दिया है कि वे भी किसी से भी कम नहीं है. कोरोना पर डीआरडीओ की 2DG दवाई के नतीजे काफी उम्मीदें बढ़ाता है.
देश का लोकतंत्र और उसकी सम्प्रभुता सर्वोच्च है. कई प्रादेशिक नेताओं की सोच भारतीय लोकतंत्र के फेडरल ढांचे को सशक्त और अबाधित रखने के विपरीत लगती है.
गौर से देखोगे तो, देश के हर क्षेत्र में ट्रोजन हॉर्स भरे पडे मिलेंगे - कलाकार, खिलाड़ी, लेखक, अर्थशास्त्री, पत्रकार. इन सबका, "मिले सुर मेरा तुम्हारा" कार्यक्रम दशकों से बिना किसी रुकावट से शुरू है. क्या, "अमन की आशा", और क्या "टुकड़े टुकड़े गैंग", सभी देश के सम्प्रभुता को ललकार रहे हैं. ये लोग हर उस के पीछे गिरेंगे. कभी ये अंदर रेमोरा फिश छोड़ेंगे, तो कभी प्लोवर पक्षी छोड़कर तो कभी खून पीने वाले घुसाकर अपना काम पटाते रहेंगे.
आज देश मे कोरोना महामारी के रूप में शांति शिला का वो समय आ गया है. ये बात अलग है, बारिश आने के बाद जंगल मे फिर से जंगलराज शुरू हो जाता है, लेकिन अंत में मोगली, शेर को पटखनी दे ही देता है.
कोरोना महामारी के चलते दूसरी चुनौतियां खड़ी है - जैसे ब्लैक फंगस, मृतकों के परिवारों की व्यवस्था
और उनका का मानसिक स्वास्थ्य और मजदुर और उद्योग.परिस्थिति कठिन जरूर है, इसलिए संयम, निश्चय और भरोसा दिखाना होगा सभी को. पंडित हरिवंशराय बच्चनजी की कविता " है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है" कि कुछ पंक्तियाँ शायद कुछ राह दिखा सकती है -
“नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है”.
मुख्य विषय :
1.
देश विघातक शक्तियाँ अब देश के सभी भौगोलिक क्षेत्रों और सभी कार्मिक क्षेत्रो मे सक्रिय हो चुकी है. धार्मिक कट्टरता काफी बढ़ गई है. फेक न्यूज रॅकेट भी अपनी रवानी पर है. संघर्ष अभी घरेलु नहीं रहा, इसमे कई विदेशी संसाधन और अदृश्य हात भी है.
2.
भाजपा द्वेष ने सभी विरोधियों को एकत्रित किया है, उनके अस्तित्व का प्रश्न है. इनका यह द्वेष अपरिवर्तनीय है (irreversible), राजनीति से ऊपर है. राजनीति में मित्रता होती है ये कहकर इसे टालना या इसे ना मानना यह बहुत बड़ी गलतफहमी होगी.
3.
आनेवाला समय भाजपा के लिए थोड़ा कठिन और अतंर्गत आलोचनापूर्ण हो सकता है. अगले साल गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तरखंड, पंजाब, गोवा, हिमाचल प्रदेश इन छह राज्यों के साथ देश के सबसे अमीर नगरनिगम, मुंबई महानगरपालिका के चुनाव होने है, इस वजह से इनकमिंग-आउटगोइंग हो सकता है
4.
किसी भी पार्टी के नेताओं /कार्यकर्ताओं का सोशल मीडिया पर होना जरूरी है, लेकिन उसका उपयोग आपसी लड़ाई-झगड़े और हिसाब-किताब पटाने के लिए होना बेमानी होगी. शायद कोई इनपर ध्यान देना चाहेगा.
ध्यान रहे, कोरोना अब भी ज़िन्दा है, जब भी निकले बाहर, डबल मास्क रखे नाक के ऊपर.
सुरक्षित रहे, सकारात्मक रहे.
- धनंजय मधुकर देशमुख, मुंबई
(लेखक एक स्वतंत्र मार्केट रिसर्च और बिज़नेस स्ट्रेटेजी एनालिस्ट है. इस पोस्ट मे दी गई कुछ जानकारी और इन्टरनेट से साभार इकठ्ठा किए गए है.)
Thanks
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