14 मई 2021, मुंबई
ना आए फिर से बंगाल मे “काल”..
"पूरब से सूर्य उगा फैला उजियारा
जागी हर दिशा दिशा जागा जग सारा"
जो लोग अस्सी-नब्बे के दशक मे दूरदर्शन देखते थे उन्हें यह विज्ञापन गीत याद होगा. काफी उत्साहवर्धक लगता था सुनकर. सच्चाई भी है. खैर.
2 मई को देश की बहुतांश जनता बेसब्री से इंतजार कर रही थी की, सूरज जल्द उगे, उजाला फैले और दिन ऊपर चढ़े. आखिर उस दिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के, और कुछ राज्य में लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों की मतगणना जो होनी थी, महत्वपूर्ण नतीजे जो आने थे.
तमिलनाडू,असम, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे सामरिक महत्व रखनेवाले राज्यों मे और, केंद्रशासित प्रदेश पुडुचेरी मे मार्च अप्रैल मे विधानसभा चुनाव हुए. साथ ही मे महाराष्ट्र मे पंढरपुर मंगळवेढा मे विधानसभा उपचुनाव तथा कर्नाटक मे बेळगावी और तेलंगाना मे तिरुपति संसदीय क्षेत्र मे भी उसी समय चुनाव हुए थे.
एक तरफ कोरोना महामारी से लड़ाई और दूसरी ओर संवैधानिक जरूरतें, इसके बीच जनता के मन असमंजस की स्थिति होना लाजमी था. खैर, कुछ अपवाद छोड़े तो सभी जगहों पर चुनावी प्रक्रिया शांतिपूर्ण ढंग से हुई, इसके लिए चुनाव आयोग, केंद्र सरकार, केंद्रीय सुरक्षा बल और स्थानिक चुनाव आयोग, पुलिस अभिनंदन के पात्र है.
नतीजे..
तमिलनाडू मे अमूमन, पिछले कुछ सालों से "आज तुम, कल हम", इस तर्ज़ पर सत्ता बदल होता रहता है. इस बार भी वहीं हुआ, एम के स्टालिन के अगुआई मे द्रविड मुनेत्र कझघम (डीएमके) ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया. वोट शेयर से जो महानुभाव चुनावो के नतीजे का खेल लगाते है, उनके लिए सोचने वाली बात है. डीएमके को एआईडीएमके से महज चार प्रतिशत (37.7%) ज्यादा वोट मिले, लेकिन डीएमके को ऐआईडीएमके से दुगुनी सीटे मिली (133/66).
भाजपा इस बार अपने चार विधायक चुनकर लाने मे सफल रही - यह काफी बड़ी उपलब्धी है. अगर सिनेअभिनेता रजनीकांत अपनी पार्टी बनाते, और चुनाव में भाग लेते तो चुनाव कुछ हद तक रोचक होते.
पुड्डुचेरी मे भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को बहुमत मिला, और वहा भाजपा के सहयोगी दल AINRC के नेता एन रंगासामी ने चौथी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
केरल मे इस बार सत्तांतर नहीं हो पाया! मुख्यमंत्री पी विजयन अपनी सरकार स्पष्ट बहुमत के साथ वापिस ले आने मे कामयाब हुए, शायद जनता को उनका महामारी से निपटने का तरीका पसंद आया, या फिर उनकी पारंपरिक "वोट बैंक" मे कोई सेंध नहीं लगा पाया. राम मंदिर निर्माण का निर्णय, धारा 370 का हटना, नागरिकता कानून और , ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून ने शायद उनके पारंपरिक वोटर को उनसे और नजदीक से पकड़े रखा. खैर.
कॉन्ग्रेस की बात करे तो, तमिलनाडु मे इसबार पार्टी को दस सीटों का फायदा हुआ (कुल 18) और केरल मे 21 सीटे मिली (पिछली बार 22). पुडुचेरी मे लेकिन पार्टी को गहरा नुकसान हुआ और सिर्फ 6 सीटे मिली (पिछली बार 15). सो, लब्बोलूबाब ये है कि केरल और तमिलनाडु मे कॉन्ग्रेस सत्ता से दूर है लेकिन सीट मिलने के मामले मे पार्टी का प्रदर्शन इसबार ठीक-ठाक या उससे अच्छा ही रहा.
पुरब मे कहीं खुशी, ज्यादा ग़म..
असम में हीमांता बिस्वा सरमा और मुख्यमंत्री सोनौवाल की जोडीने, उनके पिछले पाच साल का कार्य का, और पार्टी की शक्ति का कल्पकता से उपयोग किया, और भाजपा को लगभग स्पष्ट बहुमत दिला दिया, भाजपा के अगुआई वाले एनडीए को 75 (126 मे से) सीटे मिली. पांच साल पहले कॉन्ग्रेस से आए हीमांता बिस्वा सरमा (एचबीएस) को भाजपा ने इसबार राज्य की बागडोर सौपी, एचबीएस मुख्यमंत्री बने. गौरतलब है की वोट शेयर घटने के बावजूद भी AIUDF और कॉन्ग्रेस की सीटे इसबार बढ़ी. असम गण परिषद (NDA) और BPF (महाजोत) को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा.
सामरिक दृष्टिकोन से असम और दिल्ली की सरकारे एक दूसरे के नजदीक होना, और उनकी विचारधारा का मिलना भारत के सुरक्षा के दृष्टिकोन से बहुत जरूरी है. भाजपा ने एक आक्रमक व्यक्तिमत्व को अत्यंत संवेदनशील राज्य की बागडोर सौंपी है, देखना है उनकी दृढ़, ढीठ (unapologetic) और किसी जात-धर्म का, किसी भी तरह से तुष्टीकरण ना करने बेहिचक कार्यपद्धती राज्य और देश की आंतरिक सुरक्षा को कितना मजबूत करती है.
भाजपा की सोचे तो पार्टी के प्रमुख नेताओ ने असम का प्रादेशिक अस्मिता का मुद्दा बहुत ही संवेदनशीलता से हॅन्डल किया.
पश्चिम बंगाल का मलाल..
जैसे जैसे सुरज अपनी रवानी पर चढ रहा था, वैसे वैसे पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे आ रहे थे. दिन ढलते ढलते, तस्वीर साफ़ हो गई. ममता बॅनर्जी अपनी स्पष्ट बहुमत वाली सरकार ना सिर्फ बचा पाई, बल्कि पिछले बार मिली उससे ज्यादा सीटे चुनकर लाने मे कामयाब रही.
भाजपा ने इस चुनाव में काफी कुछ कमाया - 3 सीटों से 77 तक की लंबी छलांग लगाई.
कॉन्ग्रेस और वामपंथियों को एक भी सीट नहीं मिली - पिछली बार दोनों को 44 और 26, याने 70 सीटे मिली थी. सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं दो पार्टियों को हुआ.
बंगाल मे कौन हारा?
पश्चिम बंगाल मे इस बार कौन जीतेगा, उससे ज्यादा कौन हारेगा इस पर दुनिया की निगाहें टिकी हुई थी. भारत मे ही विश्व की मीडिया ने इसे कवर किया - हालांकि अपने नज़रिए से. अपना अजेंडा पीटने के लिए. कुछ, ये दिखाने मे ज्यादा मशगूल थे, के, अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कैसे कोरोना महामारी को नजरअंदाज कर बंगाल मे लाखो की रैलियां की. तो कुछ, दिल्ली मे बैठ कर चिताओं के सामने बैठ कर रिपोर्टिंग कर ये जताने मे मशगूल थे के इस महामारी ने भारत को तोड़ दिया है. ये बात अलग है के, 2 मई के बाद से ये अजेंडाधारी नदारद हो गए.
तो, कौन हारा बंगाल मे?
कई विशेषज्ञ इसे भाजपा की या प्रधानमंत्री मोदी, अमित भाई शाह इनकी हार बताते है. क्या एक पार्टी जिसके 3 विधायक हो, उसको अपने बलबूते पर स्पष्ट बहुमत (147 सीटे) दिलवाना इतना सरल था? अगर ऐसा हो सकता है, तो देश के हर चुनाव में भाजपा की जीत होती.
दरअसल "भाजपा की हार" यह एक दृष्टिभ्रम है, जो बना-बनाया है. लोकसभा चुनावों के बाद से. मैं यह इसलिए कह रहा हू, की कुछ लोकसभा में भाजपा को 18 सीटे मिली तो उसको विशेषज्ञों ने इस तरह से पेश किया (उन्हें जिन्हें भी करना हो) के, उन 18 लोकसभा क्षेत्र के लगभग 120 विधानसभा क्षेत्र मे से, पार्टी को करीबन 80-100 तो मिल ही जाएगी. लोकसभा मे मिली कामयाबी का शायद कुछ ने यह मतलब निकाला के अबकी बार बंगाल के मतदाता ने भाजपा का हिन्दुत्व और राष्ट्रीयता के विषय को अपनाया है. यह सच हो सकता है लेकिन सौ टका नहीं. इसके बाद यहा पर वातावरण निर्मिती शुरू हुई.
फिर 2020 के अंत से तृणमूल कांग्रेस से नेताओ और कार्यकर्ताओं का भाजपा मे आना शुरू हुआ, जो करीबन मार्च 2021 तक चला. इसमे तृणमूल कांग्रेस के कई नामी हस्तियां भी आई. इनमे से कईयों ने चुनाव लडे, कई जीते, कुछ हारे. उसकी कारणमीमांसा पार्टी और नेता कर ही रहे होंगे.
चुनाव से दूर, अलग खबर के ओर ध्यान ले जाता हु. कुछ दिन पहले, 23 मार्च को इजिप्त के सुएझ कॅनाल मे एवरग्रीन नामक एक मालवाहक जहाज अटक गया, वह छह दिनों के जद्दोजहद के बाद निकाला गया. कहते है, किसी भी जहाज को, वह जब सुएझ कॅनल के पास पहुंचता है, तो उसे इजिप्त के लोकल ऑपरेटर ही कॅनाल से निकालते है. दूसरे छोर पर जहाज निकालने के बाद ये लोग वापिस चले जाते है. वहाँ की हवा का रुख समझना और जहाज को चलाना ये स्थानिक ऑपरेटर भलीभाँति जानते हैं. इसलिए सुएझ कॅनाल मे जहाज अटकने घटनाएँ कम ही होती है. तात्पर्य यह कि लोकल ऑपरेटर फॉर ग्लोबल. खैर आप समझ रहे होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हू.
प्रादेशिक, और स्थानिक विषय और उन विषयों को कौन कैसे उठाता है इसपर जनता की नजर होती है, मीडिया की नाही, विशेषज्ञों की तो बिल्कुल ही नहीं. वे तो आपको वो बताएंगे जो आप सुनना पसंद करते है, या फिर उनको जो सुनाना पसंद है.
दूसरी तरफ, जहां एक तरफ़ तृणमूल कांग्रेस मे भगदड़ मची थी, वहीं, उसी पार्टी के दूसरी तीसरी लाइन के नेताओं के लिए कुछ कर दिखाने का ये सुनहरा मौका था. क्रिकेट मे हमने देखा है, कैसे द्रविड, तेंडुलकर, लक्ष्मण, सहवाग के सन्यास लेने के बावजूद नए खिलाड़ियों ने कैसे अपना स्थान बनाया, और टीम जीतते रही. (गांगुली पहले रिटायर हो चुके थे, इसलिए उनका नाम नहीं).
महाराष्ट्र के राजनीति मे यह खेल जून - अक्तूबर 2019 मे खूब खेला गया था. राष्ट्रवादी कॉँग्रेस और कॉन्ग्रेस के कई नेता अपनी पार्टी छोड़ कर चुनाव के समय पर शिवसेना या भाजपा मे शामिल हुए. बावजूद इसके दोनों कॉन्ग्रेस ने लगभग 100 सीटे चुनकर लाई. इसका मतलब साफ़ है, कि अगर कोई नेता पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ता है तो पार्टी को अच्छे से तोलमापना चाहिए - ये व्यक्ती चुनाव क्यु जीतती है? पार्टी की वज़ह से? अपनी छवी की वज़ह से? या वोट बैंक की वज़ह से? हारती तो हमेशा पार्टी ही है.
खैर, वापिस पश्चिम बंगाल आते हैं.
पश्चिम बंगाल में हार जरूर हुई है, लेकिन भाजपा की नहीं. मैं यह किसीको सांत्वन करने के लिए नहीं कह रहा हूं. पाँच साल मे 3 से 77 सीटों का सफर तय करना आसान नहीं है, वह भी अपने बलबूते पर.
हा, अगर हार हुई है तो, वह उस आकलन और अवलोकन की जिसने यह चित्र 2019 मे निर्माण किया, और फिर उसमे अलग अलग रंग डालकर कर उसका गुब्बारा बनवाने मे मदत की. अब ये गुब्बारा बनाने वाले कौन हो सकते है यह तो वो ही जान पाएंगे जो लोग इस चित्र निर्माण के आसपास थे. अगर, भाजपा को 2019 लोकसभा चुनाव मे पश्चिम बंगाल मे मिली उपलब्धी को जमिनी स्थिति समझते है, ये मानके चलते है कि वहां बीजारोपण सही हो गया है (जोकि करीबन पिछले पांच सालों से चल रहा होगा), तो फिर क्या 2021 मे पानी और खाद की मात्रा मे फरक आ गया? या फिर माली मे फरक आ गया या फिर जरूरत से ज्यादा माली आ गए? कभी कभी पानी देने वाले भी माली बनने की मंशा से आ सकते है जिसका नकारात्मक असर मुख्य माली के संतुलन पर हो सकता है.
- कई लोग वोट शेअर और वोट ट्रांसफर की बात कर रहे हैं. माना कि यह जरूरी है लेकिन, जहां आपकों एक वोट स्त्रोत है जो लगभग 70%, उसका आधा (35%) या उससे थोड़ा ज्यादा वोट मिलता है तो जरूरी है बचा हुआ दूसरा हिस्सा ज्यादा से ज्यादा बंटे. ये इस बार नहीं दिखाई दिया, और नतीज़ा यह रहा कि तृणमूल कांग्रेस को ना सिर्फ 30% वोट का लगभग पूरा हिस्सा मिला, बल्कि भाजपा को जो मिला उसका भी बड़ा हिस्सा मिला. अंत में तृणमूल का वोट शेयर और सीटे उतनी ही रही जितनी 2016 मे थी, बल्कि 2 ज्यादा ही मिली.
- कईयों का ये कहना / मानना है के, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को वामपंथियों वोटर का एक बड़ा ट्रांसफ़र हुआ. ये कैसे हुआ, किसने किया / कराया यह विषय रोचक तो है ही, लेकिन अगर यह सच है, तो फिर अगर 2019 मे जो हुआ और दुनिया ने देखा तो, फिर 2021 मे भी वह उसी तरह से होगा ये मानके चलना यह काफी आशावादी सोच होगी. और, अगर यह होता भी है, तो भाई साहब, तो इनके रखवालदार "डबल क्रॉस" भी तो कर सकते है.
खैर, जीत और उपलब्धियों का आकलन या कारण मीमांसा तो हर कोई अपने अपने नजरिए से करेंगा. लेकिन कुछ घटनाएँ घटी जिसका कही पर कुछ ना कुछ तो मह्त्व होगा, उनका असर गिरा होगा. इनमे एक घटना है जिसमें मुख्यमंत्री के पैर को चोट आने की. दूसरी घटना है, जब भाजपा के वरिष्ठ नेता तिसरे चरण के वोटिंग के एक दिन पहले दिल्ली वापिस रवाना हो गए.
मई 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत के बाद और पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले देश में काफी सियासती घटनाएँ हुई.
- नवंबर 2019 महाराष्ट्र मे अनाकलनीय सियासती दावपेंच देखने को मिले, जिसकी वजह से 105 विधायक होते हुए भी भाजपा को सत्ता से बाहर रहना पड़ा.
- इस के बाद फरवरी 2020 मे दिल्ली मे चुनाव हुए जिसमें आप की सरकार बनी रही.
- मार्च मे मध्य प्रदेश की राजनीति में भूचाल आया, वहा के कॉन्ग्रेस के शीर्षस्थ नेताओ मे से एक, ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा मे शामिल हुए.
- इस राजनैतिक भूकंप मे मध्य प्रदेश मे कॉंग्रेस की कमलनाथ सरकार ढह गई. भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इनको फिरसे राज्य की जिम्मेदारी दी गई.
- उसके बाद मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक मे उपचुनाव हुए. ईन सभी राज्यों मे भाजपा को बड़ी कामयाबी मिली, तीनों राज्यों की सरकारे और मजबूत हुई.
- राजस्थान में भी सत्ता परिवर्तन का खेल हुआ था, जो लंबे समय तक चाला और अंत में गहलोत सरकार का संकट टल गया.
- नवम्बर 2020 मे बिहार मे विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला (हालांकि जदयू को नुकसान हुआ) और जदयू के नीतिश कुमार सातवी बार मुख्यमंत्री बने.
सो, मई 2019 से मार्च 2021 तक काफी सियासती हरकते हुई, कुछ नई फॉल्टलाइन और प्रवाह तयार हुए, कुछ पुराने बुझ गई. भारत जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में छोटी से छोटी फॉल्टलाइन या प्रवाह (undercurrent) भी अपना रंग कहीं भी दिखा सकती है.
भौगोलिक दृष्टिकोन से बिहार और पश्चिम बंगाल पड़ोसी है. यहां की परिस्थितियों मे जमीन आसमान का फरक नहीं है. और ना ही मतदाताओं मे हो रहे ध्रुवीकरण मे. सभी दलों ने बिहार चुनाव से उन्हें ठीक लगी वो सीख ली होगी, सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव को समझा होगा.
अगर हम ऐसा माने की बिहार और पश्चिम बंगाल चुनाव एक दूसरे की कड़ी है तो, जिन्होंने बिहार की जीत में अहम भूमिका निभाई क्या वे पश्चिम बंगाल में योगदान कर सकते थे? जैसे क्रिकेट मे अक्सर होता, विनिंग कॉम्बिनेशन. खैर यह पार्टी और नेताओ का आंतरिक विषय है. एक स्थितप्रज्ञ तीसरे व्यक्ती को शायद नहीं समझेगा (खैर, क्रिकेट मे भी कभी-कभी ऐसा होता है, आज के समय के टेस्ट क्रिकेट के धाकड़ बल्लेबाज अजिंक्य राहणे को 2018 के दक्षिण अफ्रीका दौरे मे वे उपकप्तान होते हुए भी भारतीय टीम मे खिलाया नहीं गया था).
पश्चिम बंगाल चुनाव कईयों के लिए एक रोचक अनुभव रहा होगा. खासकर भाजपा मे. यहां मतदाता को अपने तरफ आकर्षित करके पार्टी को स्पष्ट बहुमत लाने के लिए जो प्लॅनिंग, कार्यकर्ताओं का संघर्ष रहा होगा वो आनेवाले समय मे दूसरों को काफी सीख दे सकता है. पिछले पाँच सालो मे यहा पर जो राजनीतिक खून खराबा हुआ, कई कार्यकर्ताओं की निर्ममता से हत्याएं हुई, आशा थी कि अब वो बंद हो जाए. लेकिन 2 मई से ही राज्य मे राजनैतिक गुंडागर्दी, खुन खराबा, महिलाओं पर अत्याचार और लोगों के पलायन की ख़बरें आने लगी. ऐसा लगता है यहा के राजनैतिक माहौल मे गरमाहट शायद लंबे समय तक रहेगी.
बंगाल है अलग..
पश्चिम बंगाल में हिन्दुत्व का नजरिया उत्तर प्रदेश के हिन्दुत्व से अलग है. साथ ही मे यहा "अड्डा" संस्कृति है. अड्डा माने लोगों का सकारात्मक कार्य के लिए एकत्र आना (ना के नकारात्मक माहौल मे) जैसे संगीत, कला, साहित्य, वादविवाद, खेल इत्यादी. यहा का ढांचा अलग है. अड्डे या क्लब के द्वारा मतदाताओं के साथ जुड़ाव बनाया जाता है, खासकर युवाओं से.और भी अनेक बिल्डिंग ब्लॉक है जिन्हें थोड़ा सशक्त करना चाहेंगे. सोशल मीडिआ पर न तो चुनाव लड़े जा सकते है और न ही जीते जा सकते है, हां, उसका यथोचित उपयोग जरूर किया जा सकता है , ये जानते तो सभी है लेकिन फिर भी ........
दूसरे, भाजपा यहां अकेली लड़ी थी, अपने पारंपरिक तरीके के विपरीत जिसमें पहले वह क्षेत्रीय दल के साथ कुछ चुनाव लड़ती है. इसको फास्टट्रैक करने के शायद अजैवी (inorganic) रणनीती अपनाई गई हो, जिसमें तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं को पार्टी में लिया गया, हालांकि इसमे कोई गलत नहीं. लेकिन क्या रणनीती यह "ट्रोजन हॉर्स" (पुरानी युद्ध शैली है जिसमें शत्रु के लोग आपसे मिलकर, आपके किले में आकर शत्रु के सैनिकों के अंदर से दरवाजा खोलते है) प्रूफ होती है? लेकिन, "ट्रोजन हॉर्स" तो आप भी भेज सकते हैं या फिर पुराने भी हो सकते हैं. खैर, राजनीति मे नफा नुकसान तो होता ही है. जोखिम तो उठानी ही पड़ती है.
पंढरपुर मे जीत..
महाराष्ट्र के पंढरपुर मंगळवेढा विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुए.यह चुनाव विशेष इसलिए था कि इस वक्त भाजपा एक तरफ और तीन दल दूसरी तरफ थे. गौरतलब है कि राज्य मे ईन तीन दलों की सरकार है. बावजूद इसके, पूर्व मुख्यमंत्री और विरोधी पक्षनेता देवेंद्र फडणवीस के अगुआई में भाजपा ने यहा पूरी ताकत झोंक दी. राष्ट्रवादी कांग्रेस के उम्मीदवार अपने दिवंगत पिता के जगह पर लड रहे थे, उनके साथ भावनाए थी. पश्चिम महाराष्ट्र मे सहकार क्षेत्र (शुगर मिल, बैंक, शिक्षण संस्थाएं इत्यादि) का फैलाव काफी है. इस वज़ह औरों की तुलना मे, यहां का मतदाता अलग है, यहां छोटे नेता, कार्यकर्ता ज्यादा होते हैं. इस वजह से भाजपा को यहां पर सामान्य मतदाता को विद्यमान सरकार की त्रुटियों को उजागर करना, छोटे नेता और कार्यकर्ताओं को आकर्षित करना और, दूसरी तरफ उनके भावनिक दृष्टिकोन को धुँधला करना जरूरी था (Managing loyalties,
personalities and their cadres). अंत मे भाजपा को यहा जीत हासिल हुई. भाजपा की संख्या 106 हो गई है. शायद आनेवाले समय मे वह 107 हो जाए, क्योंकि नांदेड़ जिले के देगलुर विधानसभा मे उपचुनाव होने है. पंढरपुर-मंगलवेढा में मिली यह जीत शायद राज्य भाजपा को नई चेतना देगी.
लब्बोलुबाब...
पांच राज्यों के चुनावों मे काफी कुछ हुआ, कहीं जीत हुई, कहीं निराशा हुई. कहीं हिसाब हुए तो कहीं हिसाब किए गए. लोकतांत्रिक व्यवस्था मे चुनाव होने जरूरी होते है, हालांकि महामारी के होते हुए वो कब और कैसे करने है इनको सोचने के लिए संस्थाएं हैं. चुनाव आते हैं, सत्ता का अनुभव मिलता है, जाता है, लेकिन, इस आपाधापी मे जरूरी है कि सामान्य नागरिक परेशान ना हो, राज्य / प्रभाग की लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक और साम्प्रदायिक सद्भावना बनी रहे. चुनावो मे हार या जीत किसी व्यक्ति विशेष या गुट या संप्रदाय विशेष को न्यायव्यवस्था से ऊपर नहीं ले जाता.
भारत एक सार्वभौम देश है, यहा संघीय ढांचा है और वह रहेगा. किसी राज्य की सत्ता का केंद्र की सत्ता से वैचारिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन वे एक-दूसरे के विरोध में काम करेंगे तो देश के संघीय ढांचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को बहुत क्षति पहुंचेगी. खासकर सीमा से जुड़े राज्य (बॉर्डर स्टेट) जैसे, पश्चिम बंगाल, असम, पंजाब, राजस्थान और तामीलनाडू. ये सभी राज्य, शत्रुतापूर्ण पड़ोसी (a hostile
neighbour) के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करते है.
पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार नहीं हुई है, हाँ, अपेक्षित मात्रा में सीटे नहीं मिली. लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी है, कार्यकर्ता निरंतर कार्य करता है. लेकिन ना जाने क्यों, हिन्दी फिल्म गोल्ड (1948 के ओलिंपिक हॉकी स्वर्ण पदक की जीत) नजरो के सामने आती है, कामयाबी तलाशते अलग अलग किरदार होते हैं, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण किरदार था टीम मैनेजर तपन दास का, हालांकि साथ मे खिलाड़ियों और एसोसिएशन के अन्य किरदार भी थे जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो आखिर में जीत हासिल करते हैं.
सीख सकते है काफी..
महाराष्ट्र मे अगले साल मुंबई के बृहन्मुंबई महानगरपालिका के चुनाव होने है. अगर सब तय वक्त नुसार हुआ तो, फरवरी 2022 मे बीएमसी के चुनाव हो सकते हैं. पश्चिम बंगाल के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के तरफ़ से एक आभासी वातावरण किया गया था - बांग्ला अस्मिता, संस्कृति, पहचान और स्थानीय बनाम बाहरी जैसे जो मुद्दे उठाए थे, वैसे ही मुद्दे छोटे मोटे बदलाव के साथ भाजपा के विरोधियों द्वारा मुंबई में भी दोहराया जा सकता है.
दूसरी तरफ़ असम मे भाजपा ने जैसे क्षेत्रीय अस्मिता को अपने विचारधारा का एक मुख्य अंग बनाया था, शायद इसके बारे में मुंबई में भी विचार करे. हालांकि, एक तरफ एंटीइनकमबंसी दिखाई तो देती है, लेकिन दूसरी तरफ अगर तीन पार्टियां मिल जाती है तो ध्रुवीकरण और बंटवारा कम होगा. ध्यान रहे, मुंबई देश की सबसे अमीर नगर निगम है.
चलते चलते..
कहते हैं पश्चिम बंगाल देश को दिशा देता है - राजनैतिक हो या सांस्कृतिक या बौध्दिक. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हमे इसके कई उदाहरण मिलते है. आज हम नए भारत में जरूर है, लेकिन पश्चिम बंगाल का महत्व अबाधित है, उतना ही जितना कि जम्मू और कश्मीर का (जिसे भारतमाता का मुकुटमणी भी कहा जाता है. पढ़िए "नया सवेरा, नया जम्मू और कश्मीर ). इस वज़ह से पश्चिम बंगाल में राजनैतिक और साम्प्रदायिक स्थैर्य जरूरी है. पश्चिम बंगाल अगला जम्मू और कश्मीर ना बने इसके लिए भाजपा एक सशक्त विरोधी पक्ष की भूमिका मे यहा अराजकता फैलने से रोकेगा ऐसी आशा करते हैं.
चुनावी हार-जीत से परे जाकर, और कॉन्ग्रेस या वामपंथियों की हार को कामयाबी ना समझ कर (क्योंकि इनकी राजनीति समझ से परे है, वह सिर्फ भाजपा द्वेष और मोदी द्वेष के इर्दगिर्द घूमती है जिसके लिए किसी भी हदतक ये दोनों दल जा सकते हैं).ईमानदारी से कारणमीमांसा करे तोb पार्टी को भविष्य मे और ज्यादा अच्छी सफलता मिल सकती है.
कई सालों पहले पंडित हरिवंश राय बच्चन जी ने बंगाल में हुई हिंसा पर "बंगाल का काल" कविता रची थी, हालाँकि यह कविता बंगाल में आए अकाल पर लिखी गई थी ,उसकी कुछ पंक्तिया आज भी विचलित करती है. दाहकता है. लेकिन अगर राज्य में राजनैतिक हिंसाचार बेलगाम शुरू रहा तो ? स्थानिक भारतीय नागरिक पडोसी देश से आए निर्वासितियो के हत्थे चढ़े तो - जैसे जम्मू और कश्मीर में जिहादी आतंकवाद फैला?
"पड़ गया बंगाले में काल,
भरी कंगालों से धरती,
भरी कंकालों से धरती!"
समय अब भी है, कठोर प्रयत्न करने होंगे, जिससे पश्चिम बंगाल मे "काल कंकाल" वाले दिन फिर कभी वापिस ना आए.
कालाय तस्मै नम:.
- धनंजय मधुकर देशमुख, मुंबई
(लेखक एक स्वतंत्र मार्केट रिसर्च और बिज़नेस स्ट्रेटेजी एनालिस्ट है. इस पोस्ट मे दी गई कुछ जानकारी और इन्टरनेट से साभार इकठ्ठा किए गए है.)
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