6 जून 2021, मुंबई
मुंबई - क्या होगा BMC में बदलाव??
कभी बॉम्बे और बंबई के नाम से मशहूर रहा मुंबई हर दिल अजीज शहर है. एक बार जो यहां आता है वह यहीं का हो जाता है. स्वप्ननगरी, आशाओ का शहर.. मुंबई..समुंदर, क्रिकेट, फिल्म इंडस्ट्री, महंगी कारें, लोकल ट्रेन. मुंबई, विरोधाभास का शहर - उंची-उंची इमारतों के साथ-साथ झोपडपट्टी. मेहनतकश लोगों का शहर. स्टॉक मार्केट के बादशाहों का शहर. राजनेताओं का शहर. मुंबई पहचान दिलाने वाला शहर भी है. इस शहर के बारे में हर शख्स की अपनी अलग परिभाषा है. जब इतना सारा "माहौल" एक शहर मे हो तो वहां अंडरवर्ल्ड और ड्रग्स कार्टेल ना हों ऐसा भला कैसे हो सकता है?
है अलग यह शहर..
मुंबई को कभी ना सोने वाली नगरी कहा जाता है. यह इसलिए के एक तबका दिन मे काम करता है, तो दुसरा तबका रात मे बाहर निकलता है. ईन दोनों तबकों को सर्व करने के लिए दिनरात काम करनेवाले मेहनतकश होते है. सुबह 4 बजे से रात 2 बजे तक काम करते देखे जा सकते हैं. ईन सभी तबकों की कहानियां अलग है, जिम्मेदारियाँ अलग है, और इनकी जरूरतें और अपेक्षाएं अलग-अलग है.
मुंबई के बारे में यह कहावत है कि बड़े से ले कर छोटे कामकाज करने वाले सभी लोग यहां अपने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए दूरदूर से आते हैं और नाकामयाबी के बाद भी वे यह शहर छोड़ नहीं पाते. इस की माया में वे ऐसे बंध जाते हैं कि सफलता की उम्मीद लगाए सालोंसाल काट लेते हैं. एक बार मुंबई में जाकर जो बस वो वही का हो गया.
मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी होने के साथ ही एक अद्भुत नगरी है. यहाँ ना सिर्फ महाराष्ट्र के लोग, बल्कि सारे भारत के लोग बसते हैं. महाराष्ट्र का महाआयोजन समझा जाने वाला गणेशोत्सव हो या गुजरातियों का गरबा, उत्तर भारतीयों की रामलीला हो या फिर क्रिसमस या सभी यहां सभी उत्सव बड़े पैमाने पर मनाए जाते है.
देश की सबसे अमीर महानगरपालिका.
देश की अर्थव्यवस्था मे सबसे ज्यादा, याने रू 3 लाख करोड़ के टैक्स का योगदान करने वाला शहर मुंबई है. यहां हर शख्स अमीर ना हो, लेकिन मुंबई देश की सबसे अमीर महानगर पालिका है. इसका सालाना बजेट रू 39,000 करोड़ का है, साथ ही मे इनके पास करीबन रू 70,000 करोड़ की फिक्स्ड डिपॉजिट भी है. करीबन दो करोड़ की जनसंख्या, दो रेवन्यू डिस्ट्रिक्ट (मुंबई शहर और मुंबई उपनगर) को चलाने वाली मुंबई महानगरपालिका मे करीबन 227 वॉर्ड है. अब जब इतना बड़ा कारोबार हो तो यहां की राजनीति भी बड़ी ही होगी!
किसकी है मुंबई?
राजनेताओ की? सामान्य नागरिक की? फिल्मस्टार्स? खिलाड़ी? व्यापारी? कहना मुश्किल है. मुंबई पर सभी हक जताते है. सिर्फ मुंबई के ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों मे रहने वाले लोग भी कहते, मुंबई किसी एक की नहीं. क्यों हक जताना चाहते है?
क्योंकि मुंबई देश का ऐसा शहर है जहा सबके के लिए कुछ ना कुछ मौके है. यहां दक्षिण का कट्टर भाषावाद नहीं है, और ना ही पूरब का बुद्धिवाद. यहा उत्तर का ठेठ पना भी नहीं है. सही मायने मे देखे तो भारत मे मुंबई ही सबसे ज्यादा सर्वसमावेशी शहर दिखता है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह भारत की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में छवि है. शायद इसी "सर्वसमावेशकता"
की वज़ह से यहां स्थानिक बनाम बाहरी यह संघर्ष शुरू हुआ, और अक्सर चुनावो के वक्त ये मुद्दा बन जाता है. बनाया जाता है, उसे उछाला जाता है. इस संघर्ष में, भाषावाद जैसे मराठी बनाम हिन्दी या गुजराती, महाराष्ट्रियन बनाम दूसरे राज्य के, ऐसे विविध प्रकार के परते (layers) दिखाई देती है. ईन परतो का ईस्तेमाल स्थानीय दल पूर्णरूप से करते है, उसका फायदा भी उन्हें मिलते दिखाई देता है.
2022 मे BMC मे होगा बदलाव??
अगले साल बृहन्मुंबई महानगरपालिका के चुनाव होने है. अगर कोरोना महामारी ना होती तो ये चुनाव 20 फरवरी के आसपास हो जाते. महामारी के चलते आसार बन रहे थे के इन्हें शायद आगे टाल दिया जाए. लेकिन परसों चुनाव आयोग ने इस बैठक में चुनाव की तैयारी के निर्देश दिए हैं. तैयारी की शुरुआत होते ही वॉर्ड के पुनर्गठन की तैयारी भी शुरू हो जाएगी.इस प्रक्रिया के बाद मतदाता सूची को अंतिम रूप देने के बाद वार्डों, बूथों का आरक्षण तय किया जाएगा.
कितना बड़ा होता है ये चुनाव?
मुंबई के 227 वॉर्ड मे एक अनुमान के अनुसार करीबन 97 लाख मतदाता हैं. 2017 मे लगभग 7900 बूथों पर वोटिंग हुई थी. महामारी के चलते इस बार बूथों की संख्या लगभग 11,500 तक बढ़ाई जा सकती है.ह र बूथ पर करीबन 1300-1500 मतदाता वोट डाल सकेंगे. एक अनुमान के अनुसार है 2012 के BMC चुनाव में रू 500 करोड़ खर्च किए गए थे. आप सोचिए दस साल बाद यह आंकड़ा कहा तक पहुच जाएगा! BMC चुनावों मे औसतन 44-45% मतदान होता रहा है, लेकिन 2017 मे शहर के 95 लाख मतदाताओं मे से लगभग 55.3% मतदाताओं ने अपना चुनावी हक अदा किया था, BMC के चुनावी इतिहास मे सबसे ज्यादा! 2017 मे सभी दल अलग-अलग लडे थे, और काटे की टक्कर भी हुई थी जिसमें शिवसेना को 84 सीटे मिली और भाजपा को 82 सीटे. कॉन्ग्रेस 31 और मनसे 7 सीटों पर सिमट गई. बाद मे मनसे के नगरसेवक शिवसेना और भाजपा मे चले गए. आज की स्थिति में शिवसेना के 97 नगरसेवक है.
भाजपा, 2012 के मुकाबले
2017 मे लगभग
60% ज्यादा सीटे जितने मे कामयाब हुई थी. सबसे ज्यादा नुकसान कॉन्ग्रेस और मनसे को हुआ था. शिवसेना 9 सीटे बढ़ाने मे कामयाब रही थी. इसका मतलब, सीटों के मायने मे 2017 मे कॉन्ग्रेस और मनसे हल्के हुए थे और उसका लाभ भाजपा को सबसे ज्यादा हुआ था.
महत्वपूर्ण होता है नगरसेवक..
नगरसेवक की भूमिका ने हमेशा स्थानीय निकाय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. एक नगरसेवक को जनता द्वारा अधिक महत्व और प्रमुखता दी जाती है. लेकिन उसे इस महत्व का उपयोग करना होगा और उसके अनुसार कार्य करना होगा. हालांकि नगरसेवक और विधायक (MLA) की ज़िम्मेदारियों मे थोड़ा अंतर है. यह उस पद को धारण करने वाले व्यक्ति पर अधिक निर्भर करता है. मुझे लगता है कि किसी क्षेत्र विशेष में किसी भी तरह के विकास के लिए विधायक और पार्षद दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं. एक वार्ड के लोगों के लिए उनके मुद्दों को हल करने के लिए नगरसेवक तत्काल अधिकार होगा. लेकिन फिर, अगर कोई पार्षद जनता के साथ संवाद या बातचीत नहीं करता है, तो विधायक अगला व्यक्ति होगा जिससे लोग संपर्क कर सकते हैं.
भारतीय लोकतंत्र में नगरसेवक (या ग्रामसेवक) की भूमिका बहुत अहम होती है, सरकार और नागरिको से जुड़ने वाली कड़ी का हिस्सा होते है. नगरसेवक, नगरनिगम, विधायक, राज्यसरकार, सांसद और केंद्र सरकार और फिर प्रधानमंत्री इस कड़ी में उनकी भूमिका अहम होती है.
नगरसेवक की जिम्मेदारियां क्या हैं?
भारत के संविधान द्वारा नगरसेवक की जिम्मेदारियों में
शामिल है -
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नगर नियोजन सहित शहरी नियोजन (Urban Planning)
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जमीन-उपयोग और भवनों के निर्माण के लिए नियम (Land Use)
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आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना बनाना
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सड़कें और पुल
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घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए जलपूर्ति
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सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता संरक्षण और सॉलिड वेस्ट
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अग्निशमन सेवाएं
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शहरी वन, पर्यावरण की सुरक्षा और पारिस्थितिक पहलुओं को बढ़ावा देना
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विकलांग और मानसिकरूप से मंद लोगों सहित समाज के कमजोर वर्गों की रक्षा करना
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स्लम सुधार
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शहरी गरीबी कम कराना
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शहरी सुविधाओं और पार्कों, उद्यानों, खेल के मैदानों जैसी सुविधाओं का निर्माण
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सांस्कृतिक, शैक्षिक और सौंदर्य संबंधी पहलुओं को बढ़ावा देना
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दफन और कब्रगाह; श्मशान, श्मशान घाट; और विद्युत शवदाह गृह
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मवेशी पाउंड; पशुओं के प्रति क्रूरता की रोकथाम
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जन्म और मृत्यु के पंजीकरण सहित महत्वपूर्ण आँकड़े
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स्ट्रीट लाइटिंग, पार्किंग स्थल, बस स्टॉप और सार्वजनिक सुविधाओं सहित
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बूचड़खानों और चर्मशोधन कारखानों के लिए नियम.
अबकी बार BMC किसकी?
इस बार शायद चुनाव ज्यादा रोचक हो सकते है. अभीतक सभी पार्टियां अपने बलबूते पर लड़ने की बाते कर रही है.BMC चुनाव का समय पर होना ना होना ये राज्य सरकार के तबीयत पर निर्भर करता है. अगर अगले आठ महीनों तक मौजूदा राज्य सरकार टिकती है तो स्थिति अलग होगी. और ना टिकी तो भी अलग.
· संकेत कुछ ऐसे है कि BMC चुनावों के पहले राज्य में सत्ताबदल हो सकता है. अगर यह सत्ताबदल भाजपा के पक्ष मे हुआ तो हो सकता है, भाजपा को उस सहयोगी दल या गुट के साथ BMC चुनाव लड़ना पडे.
· ऐसा भी हो सकता है कि BMC चुनावो मे कोई दल या गुट भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से मदत करे और उसके बाद राज्य में सत्ताबदल हो. प्रीपेड भी हो सकता है या पोस्टपेड भी.
· तीसरी परिस्थिती (जिसकी संभावना कम लगती है) ऐसी भी आ सकती है जिसमें BMC और राज्य, दोनों के चुनाव साथ हो. लेकिन इसके लिए राज्य सरकार मे से पहले किसी एक को बाहर निकलना होगा. लेकिन इसमें भी किसी दल या गुट की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद लेनी होगी
· चौथी परिस्थिती मे, विद्यमान राज्य सरकार मजबूत रहती है और BMC के चुनाव तय वक़्त पर होते हैं. इस परिवेश में, आघाडी के तीनों दल साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तो यही चाहेगी, क्योंकि शिवसेना और कॉन्ग्रेस की मदत से उन्हें मुंबई मे एंट्री मिल सकती है.
परिस्थितिया और संभावनाए और भी बन सकती है. खैर.
चौथी परिस्थिती..
अगर ऐसा होता है, तो शिवसेना को भले ही कम सीटे मिले लड़ने के लिए लेकिन, अपने सहयोगी की मदत से उनका अच्छा स्ट्राइक रेट मिल सकता है, शायद 50-60 सीटों के आस पास. अगर कॉन्ग्रेस और राष्ट्रवादी दोनों मिलकर 40-50 के आसपास आते हैं तो उनके लिए राह आसान हो जाएगी. कहने वाले कह सकते हैं के इनमे आपस मे मनमुटाव है, इनका गठबंधन अनैसर्गिक है, समन्वय का अभाव है. मुझे लगता है, तीनों दल ईन बातों का उपयोग अपने लाभ को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए करते हैं (maximise the gains).
अगले तीन-पाच महिने ऐसे ही चलता रहेगा. सीटों का बँटवारा और उसके बाद की व्यवस्था पर एक राय बनाने के लिए. सत्ता की मिठाई ऐसी है, जिसकी चटक एक बार लगे तो फिर कभी निकले नहीं. अगर ईन तीन दलों की सरकार राज्य में बरकरार रहती है तो उसी तरह के फॉर्मूले के साथ मुंबई भी चला सकते हैं.
कम ना आंके..
शिवसेना को कम आंकना किसीके लिए भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि 2017 - 2019 तक उन्हें राज्य और केन्द्र सरकार का साथ रहा है. अभी भी, राज्य मे उनकी अगुआई मे सरकार है. इसी वज़ह से पार्टी के नगरसेवको काम करने मे आसानी होती रही है. नगरसेवको को फंड मुहैया कराया गया है. पार्टी मे अब नई पीढ़ी पूरी तरह से प्रस्थापित हो चुकी है, ये नए हथकंडे जानते है. आए दिन PR के चलते, पार्टी की छवी को निखारना उन्हें भी अच्छी तरह से आ रहा है, व्यावसायिक सलाहकारों की मदत से एक पूरी इकोसिस्टम तैयार की गई है.सभी तरह के लोग शामिल है- जिसमे मीडियाकर्मी, उद्योजक, फिल्म कलाकार, लेखक, खिलाडी.
कहानी मे ट्विस्ट रहेगा..
अबकी बार के BMC चुनाव किसी ब्लॉकबस्टर फिल्म की तरह होगी. जिसमें मे दोस्ती-यारी, हर तरह की ड्रामेबाजी, लड़ाई-झगड़े, धोखा सबकुछ देखने को मिल सकता है. जिसमें दिल्ली से खास तड़का भी लगेगा. ये सिर्फ चुनाव होने तक होगा ऐसा जरूरी नहीं, खेल चुनावों के बाद भी, जब तक मनचाही सफलता मिलती नहीं तब तक चलता रहेगा.
कोरोना ने रुला दिया शहर को...
पिछले दो महीनों मे शहर मे कोरोना महामारी ने हाहाकार मचाया था. सिर्फ मई और अप्रैल 2021 की बात करे तो शहर मे 3100 से ज्यादा लोगों की कोरोना से मृत्यु हुई. अकेले अप्रैल मे कुल 2.30 लाख नए मरीज़ पाए गए थे, हालांकि मई मे ये आकड़ा 51977 पर आ गया था. पिछली मार्च से अबतक शहर मे करीबन 14833 लोगों की जान कोरोना से गई है. ये तब जब तमाम सेलेबिर्टी और मिडिया "मुंबई मॉडल" के राग अलाप रहे है.
जनता का मूड कैसा है?
कोरोना महामारी के चलते शहर के नागरिको को हर तरह का नुकसान उठाना पड़ा - किसीको बेड के लिए, तो किसीको दवाई के लिए, कहीं डॉक्टरों की कमी तो कहीं संसाधन की. कईयों ने अपने सगे संबंधी खो दिए. शहर का मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर लगभग चरमरा गया था. अब जब महामारी की दाहकता कम हो रही है, और नागरिको को वैक्सीन लगाने की मंशा है तो उसमे काफी परेशानियां देखने को मिल रही है.
सो, जनता के मूड की बात करे तो एक तरह का असंतोष महसूस किया जा सकता है. लेकिन चुनावो के वक़्त वे अपना रोष कैसा और किसपर व्यक्त करते हैं यह देखने की बात है. हालांकि, मीडिया का एक बड़ा गुट केंद्र सरकार, खासकर प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा को इस महामारी का दोषी करार देने मे दिनरात व्यस्त है. उसका परिणाम है कि काफी लोगों को उनकी बातों में विश्वास होने लगा है (खासकर पश्चिम बंगाल के चुनावों के बाद). मुंबई की जनता यह सब देख रही है, “मुंबई स्पिरिट सबसे बेहतर है" ये कहके जनता के दर्द को नकारा नहीं जा सकता.
सो, मुद्दे क्या है?
देखिए, ऊपरी सतह पर तो BMC चुनावो मे मुद्दे हमेशा ही से भ्रष्टाचार, शहर की सड़के, ट्रॅफिक, बारिश में बाढ़, पानी, गैरकानूनी अतिक्रमण के इर्दगिर्द घूमते हैं. लेकिन अंदर-अंदर यहां अनेक बातों का विचार होता है, जैसे मराठी-अमराठी, हिन्दू-मुस्लिम/ईसाई, महाराष्ट्रियन-अ-महाराष्ट्रियन, बिल्डिंग-झोपडपट्टी, अमीर-गरीब, पढे लिखे - कम पढ़े लिखे. अंत में जिस गुट मे ज्यादा मतदाता हो उनको इन्हीं बातों पर आकर्षित करके अपने ओर खींच लिया जाता है. इसके लिए, सिर्फ महाराष्ट्र से ही नहीं बल्कि देश के कोने-कोने से नेता, अभिनेता, खिलाड़ी, धर्मगुरु को लाया जाता है.सो, आप समझ सकते हैं BMC चुनाव की व्याप्ति!
क्या ज़रूरी है मुम्बईकर के लिए..
अगले कुछ दिनों में टोक्यो मे ओलिंपिक खेल होने है. तीन लैटिन शब्दों से मिलकर ओलंपिक खेलों का मोटो बना है. सिटियस, अल्शियस, फोर्टियस ये शब्द हैं जिनका अर्थ और तेज, और ऊंचा और स्ट्रॉन्ग /ताकतवर है. मुंबई के नागरिको के लिए भी बिलकुल ऐसे ही शहर की जरूरत है जहा उनका आवागमन तेज हो, घर और रहने का स्तर ऊंचा बने, और उनकी सेहत और आर्थिक हालात स्ट्रॉन्ग बने. अगर मुंबई शहर की सुविधाएं ये करने मे सफल होती है सपनों का शहर सफलता का शहर भी बन जाएगा.
- मुंबई शहर में पिछले तीन दशकों में कितने नए अस्पताल, विद्यालय, रस्ते बनाए गए हैं इस बात पर जनता का ध्यान आकर्षित होना जरूरी है.
- खासकर जब महामारी के इस दौर में (जोकि लंबा चलने वाला है), मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकेंद्रीकरण (decentralisation of medical infrastructure) बेहद जरूरी हो गया है. हर एक वॉर्ड मे, वहां की जनसंख्या के एक अनुपात को उसी वॉर्ड मे किसी भी मेडिकल जरूरत (कोरोना भी) को हॅन्डल कर सके ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए.
- कई वार्डो के बच्चों को कॉलेज के लिए 8-10-15 किलोमीटर दूर जाना पडता है. सो, हर वार्ड के 2-4 किमी में लोकल इंफ्रा जरूरी है - मेडिकल, एजुकेशनल, और सोशल.
- आएँ दिन अपराधिक गतिविधियाँ बढ़ रही है, खासकर ड्रग्स के मामले में. अपराधिक गतिविधियों पर नजर रखने के लिए सक्षम सर्विलांस सिस्टम और बेहतर स्ट्रीट लाइटिंग जरूरी है.
सिर्फ भ्रष्टाचार, रास्तो का रखरखाव, नालों की सफाई ईन विषयो पर अगर चुनाव जीते जाने लगे तो उसके लिए जनता ही जिम्मेदार लगती है. और अगर यहा दशको से भ्रष्टाचार हो रहा है, और इसी बात पर कोई अगर अपनी शक्ति लगा बैठे रहे, तो शायद कामयाबी उनसे दूर निकल जाएगी. माना के भ्रष्टाचार होता रहा है, लेकिन आगे प्रश्न यह निर्माण होता है तो, एक-दो रेड के आगे इस विषय मे कारवाई क्यों नहीं होती? नगरनिगम कार्यपद्धति मे और राज्य सरकार के कार्यपद्धती मे कुछ फर्क़ होते है. नगरनिगम हर विभाग की समिति होती है, जिसमें सभी दल के सदस्य होते है. अगर कोई कदम गलत उठते है, तो उनको उसी वक्त जनता मे लाने की जिम्मेदारी भी ईन सदस्यों की होती है. खैर.
बेस्ट कर रही है टेस्ट..
लोकल ट्रेन की तरह ही, बेस्ट बस सेवा मुंबई की लाइफलाइन है. पिछ्ले कुछ वर्षो से बेस्ट की माली हालत ठीक नहीं है. अब तो कई बसे (1200+) प्राइवेट कंपनीयों से "वेट लीज" पर ली गई है, ये सारी बसे बेस्ट के ही डिपो मे रखी जाती है. क्या किसी सदस्य ने बेस्ट मे प्राइवेट कंपनियां क्यु, कैसे, कहा से आई और क्या उनका आना बेस्ट के लिए सही मे फायदेमंद है, इस विषय पर अभ्यास किया है? बेस्ट की भी एक समिति है जिसमें सभी दलों के सदस्य होते है.
कैसा होगा इस शहर का सफर?
देखिए मुंबई का इतिहास जितना पुराना है, उतनी ही पुरानी है इस शहर की कमजोरियां और खामियाँ. शहर की अपनी कुछ सीमाए है - खासकर जमिनी ढांचा बढ़ाने के विषय में.
इसलिए आनेवाले दशकों का मुंबई शहर कैसा होगा इसकी कल्पना करना जरूरी है. इस शहर को इसकी वैश्विक विशेषता के अनुरूप रखना है तो शहर मे अनेक बदलाव लाने जरूरी होंगे.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने शायद इस शहर के लिए एक चित्र बनाया था, जिसमें करीबन 300 किलोमीटर दूरी का मेट्रो रेल नेटवर्क खडा करना, वरली सी-लिंक का बढावा करना और, कोस्टल रोड का निर्माण करना ये बुनियादी ढांचे के परिवर्तन शामिल थे. उनके चित्र मे केंद्र की बुलेट ट्रेन और नवी मुंबई में बन रहे एयरपोर्ट को मिला ले तो शहर का बुनियादी ढांचा शायद अगले 30-40 सालो के लिए सक्षम है. हालांकि पिछ्ले दो सालों मे इनमे से कुछ परियोजनाओं पर रोक सी लाग गई है, या धीमापन आ गया है.
मल्टीप्लायर इफ़ेक्ट
जब एक सरकार जमीनी ढांचा (रेल, रोड) बनाने में पैसा
लगाती है तो उसका सकारात्मक असर स्थानिक और
देश की इकॉनमी पर होता है. इसे मल्टीप्लायर इफ़ेक्ट कहते है . कहते है रेलवे
का मल्टीप्लायर इफ़ेक्ट औसतन ३ से ५ होता है - इसका मतलब , पैसा खर्चा होने के और सुविधा
के इस्तेमाल शुरू होने के करीबन ५-१० दस सल्ल में लगभग तीन - पांच गुना पैसा इकॉनमी
में आता है, जिसका असर जीडीपी पर होता है. जो प्रोजेक्ट मल्टीप्लायर इफ़ेक्ट देते है
उन्हें "फ़ोर्स मल्टीप्लायर" कह सकते है.
मेट्रो, कोस्टल रोड, ये देवेंद्र फडणवीस सरकार के
"फ़ोर्स मल्टीप्लायर" है जिनपर करीबन रु दो लाख करोड़ खर्चे होने है. बुलेट
ट्रेन मोदी सरकार का "फ़ोर्स मल्टीप्लायर" है.
भाजपा और BMC..
भाजपा के लिए BMC चुनाव मे बड़ी कामयाबी हासिल करना काफी मायने रखेगा, जरूरी भी है. शहर की बदलती डेमोग्राफी कानून व्यवस्था पर असर डालती है. मुंबई के मालाड क्षेत्र के मालवणी इलाके मे छेडा नगर है जो एक दर्दनाक कहानी बयां करता है.
2017 मे भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के पारदर्शक कार्यपद्धती और मुंबई मे नई सुविधाएं का निर्माण करने का मुद्दा बनाया था, जिसमें पार्टी को अच्छी कामयाबी मिली थी. इसबार कामयाबी पाने के लिए जनता के सामने कुछ नया और बेहतर पर्याय रखना होगा.
महामारी के चलते जनता के बीच अपना विषय कल्पकता से पहुंचाना होगा. पुराने ढर्रे से हटकर अलग तरीके से लोगों मे विश्वास पैदा करना होगा, उन्हें वोटिंग के लिए उत्साहित करना होगा. पुराने धोखे, और आगे हो सकनेवाली धोखाधडी को पूरी तरह से आंककर जितने कि रणनीती बनानी होगी.
है कोई चेहरा?
क्या भजपा के पास BMC के लिए कोई चेहरा है? हालाँकि, BMC के मेयर हर दो साल में बदलते है, लेकिन, जरुरत है एक ऐसे चेहरे की जिसकी नेतृत्वक्षमता और कार्यक्षमता पर लोगो का बहोरसा हो. शायद देवेंद्र फडणवीस जैसे कोई?
क्या होगी रणनीती?
शहर मे हर राजनीतिक दल का अपना वोट बैंक है, लेकिन किसी भी दल की वोट बैंक इतनी बड़ी नहीं है के उन्हें 115 सीटे जीताए. इसके लिए अभी से काफी मशक्कत करनी होगी. कईयों को मुगालते (overconfidence) से बाहर निकलना होगा. आकंडों और काग़ज़ी घोड़ों की दुनिया से निकलकर जमीन पर जाकर लोगों का मूड पूर्णरूप से समझना होगा. अगर लोग बदलाव चाहते हैं तो, जरूरी नहीं कि सभी लोग भाजपा को ही बदलाव का हकदार समझते है. उनके मन की बात जानना होगा.
मध्यमवर्गीय निवास या छोटी बस्तियों में रहने वाले वोटर तो बड़ी मात्रा में बाहर निकलते ही है. उनके मुद्दे अलग होते हैं. लेकिन बिल्डिंगों मे रहने वाले वोटर की मानसिकता समझनी होगी. लोकसभा चुनावों मे वो अगर नीचे उतरकर, तीन घंटे राह देखकर मतदान करते हैं तो फिर BMC चुनावो मे क्यों नहीं? इस वज़ह से, हाई राइस बिल्डिंगों के मतदाताओं मे इस शृंखला / चेन की जनजागृती होना बेहद जरूरी है, जिससे वे बाहर निकले और मतदान करे.
इस शहर ने पिछले तीन दशकों में क्या पाया-क्या खोया, इसपर राजनैतिक पार्टियों मे बहस छिड़ना स्वाभाविक है, लेकिन, अगले तीन दशकों में यह शहर में कहा जाएगा - इसके लिए किसके पास दूरदृष्टि (विजन) और काबिलियत है इसका अंदाजा जनता को मिलना जरूरी है.
खासकर भाजपा के लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है. शायद वे इसके लिए एक कार्यक्षम रणनीती बनाएंगे.
चुनावो का मौसम होगा..
अगर BMC के चुनाव तय समय पर होते है तो राज्य की आठ से दस निकायों के चुनाव भी उसी वक़्त होंगे. इसका असर BMC के चुनाव पर देखने को मिल सकता है, क्योंकि कई नेतागण अपने अपने इलाके में व्यस्त रहेंगे. लगभग उसी समय उत्तर प्रदेश, पंजाब मे चुनाव होने है, इसका असर योगी जी जैसे स्टार कॅम्पेनर्स की उपलब्धता पर हो सकती है. लेकिन दूसरी ओर बिहार, पश्चिम बंगाल, असम के चुनाव हो गए हैं. जिसका मतलब यहा के नेतागण मुंबई मे देखे जा सकते हैं. खासकर पश्चिम बंगाल और असम के नेता.
जीत किसकी होगी?
आज के हालात मे जीत का सेहरा किसके सर बंधेगा ये कोई भी नहीं कह सकता. उपरोक्त बताए संभावनाओ मे से किन हालातों मे ये चुनाव होते है, किन दलों का आपसी तालमेल होता है इस पर काफी कुछ निर्भर करता है.
· पक्षीय बलाबल, जनता का मूड और मुद्दो की बात करे तो भाजपा के आसार बनते दिखते है. लेकिन अगर तीनों दल साथ मिलकर लड़ते है तो शायद मामला इतना आसान भी नहीं रहेगा - ये मान के भी चले की तीन दल लड़ेंगे तो निर्दलीय बढ़ेंगे
·
दूसरे, आज जनता के जो मुद्दे है उन्हें चुनाव के आखिरी दिन तक जिवित रखते आना (जनता जल्दी भूल जाती है), अपने पास उन मुद्दो का सोल्यूशन है ये जो दल ज्यादा अच्छी तरह से कर पाएगा जनता उन्हें ज्यादा पसंद करेगी, हो सकता है जीत उन्हीं की होगी
· जो दल अपने वोटर को आनेवाले तीन दशकों की मुंबई का एक सकारात्मक और आशादायी चित्र भरोसेलायक तरीके से दिखा पाएगा, जो दल युवाओं के साथ-साथ महिला और बुजुर्गों को भी वोटिंग के लिए आकर्षित करेगा, वो दल इस चुनाव में कामयाबी हासिल करेगा.
अगर आज ही से हर बूथ, हर वॉर्ड को जितने कि ललक होगी तो 115 का आकडा मुश्किल नहीं है. दिक्कतें तब आती है जब राजनैतिक दल कभी-कभी अपने आंतरिक संघर्ष के चलते गलत उम्मीदवार चुनते है. जो उम्मीदवार पिछली बार जीता वो इस बार भी जीतेगा ही यह भ्रमात्मक विचार नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए उम्मीदवार का चयन बहुत महत्वपूर्ण है. नगरनिगम के सदस्य अमूमन मिलके काम करते हैं इसलिए उनका पार्टी के परे मदत करने का तरीका होता है. लेकिन चुनावों मे इनको भुलाना होगा.
वोकल फॉर लोकल..
भाजपा के लिए 82 से 115 का आकडा छूना भले ही थोड़ा कसौटीपूर्ण लगता है, लेकिन ये नामुमकिन भी नहीं, खासकर जब केंद्र में उनकी निश्चयात्मक सरकार है. साथ ही मे, पश्चिम बंगाल, असम और भाग्यनगर (हैदराबाद) मे मिली सफलता कुछ राह जरूर दिखा सकती है, बशर्ते यहां रायता ज्यादा फैलाया ना जाए - लोकल इलेक्शन, लोकल मॅनेजमेंट इस नियम का अनुसरण किया जाए.असम में क्षेत्रीय अस्मिता भी चुनावी मदद था, भाजपा न ऐसे अच्छी तरह से utilise किया.
क्या दिल्ली राह दिखाएगी??
आज से लेकर अगली 20 फरवरी तक, केंद्र मे दो अधिवेशन होने है. अगर ये दोनों सत्र तय समय पर, तय समय तक होते है तो कुछ नया होने की संभावना बनती है. शायद कुछ नए कानून आ सकते हैं, जैसे समान नागरी कानून या जनसंख्या नियंत्रण कानून. इसके अलावा भी कुछ और ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं, जिससे लोगों में केंद्र सरकार और पंतप्रधान मोदी पर विश्वास बढ़े.
चलते चलते..
मुंबई शहर को भी साँस लेनी है. उसके लिए शहर की बागडोर ऐसे लोगों के हाथो मे जाना जरूरी है जो कुछ नया निर्माण करने की सोच और उसे पूरा करने की कार्यक्षमता रखते हैं.मुंबई शहर का अपना सफर काफी लंबा है, वैसे ही यहा बसे हुए बाशिंदों का. यहा आनेवाले लोग "बम-बम बंबई, बंबई हमको जम गई" से "बंबई शहर हादसों का शहर है " या "इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है" तक का सफर तय करते हैं. हालांकि यह शहर हर एक शख्स को कुछ ना कुछ देता ही है, अनुभव सो अलग. मुंबईकर के सफर की कुछ जिम्मेदारी शहर के नुमाइंदों की भी है. जिनमे सामाजिक / राजनैतिक संघटना और अफसर भी शामिल है.
वर्चस्व दिखाने के लिए चुनाव जीतकर, शहर पर राज करने की मानसिकता को अब शायद पूर्णविराम दिलवाना होगा. नहीं तो यह शहर फिर जंगल सा बन जाएगा. बिल्कुल वैसे, जैसे 1990 मे बनी सुपरहिट हिन्दी फिल्म अग्निपथ मे विजय दिनानाथ चौहान (अमिताभ बच्चन) और इंस्पेक्टर गायतोंडे (विक्रम गोखले) के बीच एक संवाद है, जो मुंबई की परिस्थिति का बड़ी बखुबी से वर्णन करता है."कहने को तो यह शहर है, लेकिन आज भी यहा जंगल का कानून चलता है. यहा हर ताकतवर अपने से कमजोर को मारकर जीता है. चीटि को बिस्तूईया (छिपकली) खा जाती है, और बिस्तूईया को मेंढक. मेंढक को साप निगल लेता है. नेवला साप को फाड़ देता है. भेड़िया नेवले का खून चूस लेता है और शेर भेड़िये को चबा जाता है."
अपार सम्भावनाओ के लिए जाने जाना वाले शहर, मुंबई मे विश्वास, इंसानियत और कानून का राज़ बरकरार रखने का जनता, सामाजिक संस्थाएं और राजनीतिक दलों के पास एक सुनहरा मौका है. फिर ना कहना, "मौका भी था, दस्तूर भी था लेकिन ना जाने हम कहा खो गए". कामयाबी अक्सर उन्हीं को मिलती है जो मुश्किलों का सामना जानते है, आगे बढ़ते है, साथ चलते है. कवि नरेंद्र वर्मा की माने तो -
"राह में मुश्किल होगी हजार, तुम दो कदम बढाओ तो सही.
हो जाएगा हर सपना साकार, तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही..
मुश्किल है पर इतना भी नहीं, कि तू कर ना सके.
दूर है मंजिल लेकिन इतनी भी नहीं, कि तु पा ना सके
तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही.."
जीत किसी भी पार्टी की हो, आम नागरिक को अच्छी नागरि सुविधाएं मिलनी चाहिए.
कालाय तस्मै नमः.
- धनंजय मधुकर देशमुख, मुंबई
(लेखक एक स्वतंत्र मार्केट रिसर्च और बिज़नेस स्ट्रेटेजी एनालिस्ट है. इस पोस्ट मे दी गई कुछ जानकारी और इन्टरनेट से साभार इकठ्ठा किए गए है.)
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