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अगस्त 20, मुंबई
खेल पैसे का, या खेल का पैसा??
वैश्विक कोरोना
महामारी ने
व्यापार उद्योग
जगत के साथ
खेल और मनोरंजन जगत को भी
अपनी चपेट में
लिया. मॉल, सिनेमा
हॉल बंद हो
जाने से लोगों
के पास मनोरंजन के सीमित साधन
रह गए. और
यही पर ऑनलाइन
मॉडेल काम कर
गया. ऑनलाइन मॉडेल
मे, अनेक लोग
एक वस्तू लेने
के लिए एक
जगह आने के
बजाय, एक वस्तू
अनेक लोगों के
पास एक ही
वक्त पर पहुच
सकती है, और
वह भी उनके
बताए गए समय
पर, उनके घर,
मोबाइल और टीव्ही
पर.
जब चाहे तब,
जितनी बार तब
देखिए - यही ऑन-डिमांड मनोरंजन का ब्रीद था,
लेकिन उसे चाहिए
वैसा प्रतिसाद मिल
नहीं रहा था
- कभी ब्रॉडबैंड की
वजह से तो
कभी जरूरत ना
दिखने पर. लेकिन
कोरोना महामारी ने
आम नागरिक को
छोटे से छोटे
शेल या कवर
(घर) मे धकेल
दिया (घर-सोसाइटी - ऑफिस - मार्केट - गाव
- विदेश उल्टे क्रम
में पढ़े). इस
वजह से लोग
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म (Amazon Prime,
Netflix, Hotstar, Zee5) की तरफ आकृष्ट
हो गए. कोई
चॉईस नहीं था.
मनोरंजन जरूरी
जो है!
हाल ही मे
"दिल बेचारा" नाम
की फिल्म डिस्ने
हॉट स्टार नाम
के ऑनलाइन प्लॅटफॉर्म (OTT - Over The Top) पर रिलीज
हुई. आकंडों की
माने तो, एक
ही दिन मे
इस फिल्म को
करीबन 9.5 करोड़ व्यूज मिले.अगर शायद फिल्म
सिनेमा हॉल मे
रिलीज होती और
इतने लोगों ने
देखा होता तो
शायद एक हजार करोड़ की
ओपनिंग मिलती. हालांकि इस फिल्म को
देखने के लिए
लोगों मे एक
अलग कारण की
भावना थी.
पैसा ये पैसा..
पैसा किसी भी
क्षेत्र के
लिए ऑक्सिजन की
तरह होता है.
व्यापार, व्यवसाय, इंडस्ट्री, शिक्षा
इत्यादी. कुछ
क्षेत्रों मे
पैसे से पैसा
बनता है, जैसे
बड़े उद्योग लोगों
उत्पाद बनाकर ग्राहको को बेचते हैं
(रिटेल जैसे हम,
या फिर दूसरे
उद्योग या सरकार)
और पैसा बनाते
है. उस पैसे
से कर्माचारियों को
मेहनताना देते
हैं. जिससे उनका
घर चलता है,
बचत होती है,
वे दुसरे उत्पाद
खरीदते है, और
फिरसे पैसा सिस्टम
मे आता है.
जब तक ये
कारोबार वैध
रूप से चलता
है (बैंक के
मार्फत, रसीद, टैक्स
कटवाना, जमा करना)
तब तक साफ
धन जमा होता
है, घूमता है.
बीच मे कोई
इसे अवैध रीति
(तय सीमा से
बाहर कैश लेना
या देना, बिना
रसीद या टैक्स
ना काटना या
जमा ना करना)
जमा करने की
कोशिश करता है,
और अपने हिसाब
से लेनदेन करने
लगता है तब
यह धन काला
बन जाता है.
इसका हिसाब नहीं
रह पाता. खैर, इस सफेद और काले धन के विषय के बारे मे बाद मे आएंगे.
आइए, नजर डालते
है कुछ उद्योगों पर जिनकी अपनी
अलग ही अर्थव्यवस्था है.
फिल्म इंडस्ट्री..
- भारत मे करीबन 9600 सिनेमा स्क्रीन्स है (जिसमें से 3000 मल्टिप्लेक्स मे है और बचे हुए सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल).
- भारत मे हर साल बीस से अधिक भाषाओ मे 1600 से 1800 फ़िल्में बनती है, जिसमें मे हिन्दी फ़िल्मों का योगदान महत्वपूर्ण है.
- कहते है 2017 मे भारतीय फिल्म उद्योग की कमाई लगभग रू 16,000 करोड़ थी. सालाना 10% वृद्धि से आज ये करीबन रू 20-21,000 करोड़ होगी.
- अगर इस क्षेत्र की पिछले पाच सालो की आय जोड़ते है तो करीबन, रू 80 - 82000 करोड़ इनकी हुई कमाई होगीं.
- अमूमन 70% कमाई बॉक्स ऑफिस से होती है, मतलब 80-82000 का 70%, रू 56-57500 करोड़. ये कमाई सामान्य जनता के जेब से गई है, जो ज्यादातर सफेद धन होना चाहिए.
ये धन गया कहा?
यह पैसा सिनेमा
हॉल (18-28% का
मनोरंजन कर
/ टैक्स कट कर)
से डिस्ट्रीब्यूटर, और
डिस्ट्रीब्यूटर से
प्रोड्यूसर और
प्रोड्यूसर से
फाईनांसीयर, और
फिर फाईनांसीयर से
कहीं और?कहां?
ये बताना मुश्किल है, क्यूंकि, मूलतः फाईनांसीयर के पास इतना पैसा आया
कहा से था, ये
भी कई बार
अभ्यास का विषय
होता है. और प्रोड्यूसर को पहले कितना मिलता है औरbबाद मे कितना, यह भी संशोधन का विषय है. खैर.
ज्यादातर, ये लोग अलग-अलग व्यक्ति / कंपनियां होते हैं. लेकिन, कई बार सिनेमा हॉल मालिक, डिस्ट्रीब्यूटर, प्रोड्यूसर और फाईनांसीयर, सब एक ही व्यक्ति / कंपनी होते है, जैसे PVR.
कई बार डिस्ट्रीब्यूटर, प्रोड्यूसर और
फाईनांसीयर एक
होते है. कई
बार प्रोड्यूसर और
फाईनांसीयर एक
होते हैं. हर
बार अलग अलग
कॉम्बिनेशन बनते
है.
इसमे म्युझिक राइट्स
(पुराने ज़माने मे
TSeries, Tips, Venus हुआ करते थे,
अब भी है)
या टेरेस्ट्रियल राइट्स
(ऑनलाइन या भारत
के बाहर प्रदर्शन करने की अनुमती
- Amazon, Netflix या और कंपनियां) शामिल नहीं है.
सो, लब्बोलुआब ये है कि फिल्म क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और इकोसिस्टम एकदम अलग है. विशिष्ट है. इसलिए शायद उसमे काफी लचीलापन भी है. या लाया गया है?
लेकिन कौन है इसके सूत्रधार?
ये समझने के
लिए इस उद्योग
को जानना जरूरी
है. पहले नीचे
से ऊपर जानेवाले पैसे का खेल
समझते है. अगर
1500-1700 फ़िल्में रू
15000 करोड़ बॉक्स ऑफिस
पर कमाती है
तो, औसतन हर
फिल्म करीबन रू
8-10 करोड़ कमाती है.
कुछ गिनी चुनी
फ़िल्में हिट
होकर सैकड़ों करोड़
कमाती है, और
कुछ पूरी तरह
फ्लॉप होती है.
सोचने जैसे बात ये है कि क्या औसतन हर फिल्म रू 10 करोड़ मे बनती है? आजकल 35-50-100 करोड़ कॉमन हो गया है, फिर भी ये सिस्टम कैसे चलती है? नुकसान में?
कुछ लागत म्यूजिक और टेरेस्ट्रियल राइट्स के बेचने से कवर हो जाती है, लेकिन फिर भी बड़ी लागत का सवाल खडा रहता है. डिस्ट्रीब्यूटर उसे काफी हद तक पूरा किया जाता है. तो, अगर फिल्म पिटटी तो कौन सबसे ज्यादा भुगतता है? यह बताना इतना आसान नहीं है.
फिर भी, हम ही है सिकंदर, बाज़ीगर ..
लेकिन, कहते है
फिर भी उद्योग
फलफूल रहा है.
हालांकि आजकल
इस उद्योग मे
काफी खलबली मची
हुई है - भाई भतीजा, परिवार और अपने परिजनों को काम देना या दिलाने पर बहस छिड़ी हुई है.
इसी दौरान पिछ्ले
दो महीनों मे
कुछ दुःखद घटनाएँ
भी घटीं है,
जैसे एक युवा
होनहार कलाकार सुशांत
सिंह राजपूत इनका
मृत्यु. इस पर
जोरदार बहस या
चर्चा शुरू है.
ये विषय पुलिस,
प्रशासन और
सरकार का है,
और हम आशा
करते हैं कि
सच सामने आएगा.
हालांकि, जैसे
फ़िल्मों मे
दिखाया जाता है,
हो सकता है
, वैसे ही यह
प्रकरण भी अंतहीन
साबित हो सकता
या किया जा
सकता है, क्योंकि इसके कई कारण
हो सकते है.
देखा जाए तो यह पहली बार नहीं हुआ है. नब्बे के दशक मे एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री का अपने बिल्डिंग के खिड़की से गिर कर, 2013 में एक युवा अभिनेत्री की तथाकथित आत्महत्या, दो साल पहले दुबई में एक सुपरस्टार अभिनेत्री की दुबई के होटल में रहस्मय तरीके से मृत्यु, और पिछले महीने मे चंद दिनों मे एक मैनेजर और फिल्म स्टार का इस दुनिया से जाना.
पहले की बात शायद और थी, लेकिन आज के डिजिटल ज़माने मे हर पल अपनी डिजिटल फुटप्रिंट बनाते रहते हैं, छोड़ते रहते है. दो साल पहले, तुर्की के दूतावास मे सऊदीअरब के बड़े उद्योगपति का रहस्यमय तरीके से गायब होना और फिर मृत्यु होना. पहले तो लगा कि यह मामला गुमनामी मे खो जाएगा. लेकिन अमरिका मे बैठे लोगों के पास उनकी पूरी डिजिटल फुटप्रिंट थी और गुत्थी सुलझ गई. कहने का मतलब है, जहा चाह वहा राह.
देखा जाए तो यह पहली बार नहीं हुआ है. नब्बे के दशक मे एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री का अपने बिल्डिंग के खिड़की से गिर कर, 2013 में एक युवा अभिनेत्री की तथाकथित आत्महत्या, दो साल पहले दुबई में एक सुपरस्टार अभिनेत्री की दुबई के होटल में रहस्मय तरीके से मृत्यु, और पिछले महीने मे चंद दिनों मे एक मैनेजर और फिल्म स्टार का इस दुनिया से जाना.
पहले की बात शायद और थी, लेकिन आज के डिजिटल ज़माने मे हर पल अपनी डिजिटल फुटप्रिंट बनाते रहते हैं, छोड़ते रहते है. दो साल पहले, तुर्की के दूतावास मे सऊदीअरब के बड़े उद्योगपति का रहस्यमय तरीके से गायब होना और फिर मृत्यु होना. पहले तो लगा कि यह मामला गुमनामी मे खो जाएगा. लेकिन अमरिका मे बैठे लोगों के पास उनकी पूरी डिजिटल फुटप्रिंट थी और गुत्थी सुलझ गई. कहने का मतलब है, जहा चाह वहा राह.
मुद्दा यह है कि क्या इस उद्योग मे भी दुसरे उद्योगों जैसे पारदर्शकता, सर्वसमावेशकता और जबाबदेही होनी चाहिए या नहीं? मुद्दे और भी है.
जो भी हो, इस क्षेत्र को खेती क्षेत्र से तुलना कर नहीं सकते. खेती क्षेत्र मे चंद हजार रुपये का कर्जा हो जाने पर दुर्भाग्यवश कई किसान अपनी जान दे देते है. उदाहरण के लिए पिछले चार महीनों मे महाराष्ट्र मे बारा सौ से ऊपर किसानों ने आत्महत्या की. बहुत ही दुर्भाग्यवश है यह.
खासियत..
फिल्म उद्योग की खासियत यह है कि इसमे चंद गिने चुने लोगों को अपना हिस्सा पूरा मिलता है - कुछ को बेहिसाब, कुछ को जितना करार होता है उतना, और कुछ को शायद पेट भरने जितना.
सोचने की बात
यह है कि
इस क्षेत्र मे
कितने रोजगार निर्माण होते है, कैसे
निर्माण होते
है, उनकी भर्ती
कैसे होती है,
कौन चयन करता
है, कैसे चयन
करता है?
जनता के जेब से तो इस क्षेत्र मे सालाना रू 12-15,000 करोड़ जाता है, जोकि ज्यादार सफ़ेद धन होता है.लेकिन इस क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों से अर्थव्यवस्था मे वापिस कितना सफेद धन आता है? करीबन 15-20% मनोरंजन कर के माध्यम से.
अनुमान सही हो
तो, पिछले साल
भारत मे लगभग
200 करोड़ दर्शकों ने
सिनेमा हॉल मे
जाकर फ़िल्में देखी.
औसतन जो लोग
सिनेमा हॉल मे
जाते है वे
साल मे 4-5 फ़िल्में तो देखते ही
है. इस तरह
से करीबन 40-50 करोड़
लोगों ने फ़िल्में देखी.
मल्टीप्लायर इफेक्ट..
भारतीय रेल्वे जब
कभी 100 रुपये का
नया काम निकालती है तो कहते
है उसका अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर
होता है. तीन
से पाच साल
मे यह 2-3 गुना
धन अर्थव्यवस्था मे
वापिस लाता है,
जिस वजह से
अर्थव्यवस्था बढ़ती
है (जीडीपी). इसे
गुणाकार या
"मल्टिप्लायर इफेक्ट" कहते
है. मेट्रो, सड़क
निर्माण का
भी यही इसी
तरह का सकारात्मक मल्टिप्लायर इफेक्ट
होता है. इन्हें
फोर्स मल्टीप्लायर कह सकते
है.
फिल्म उद्योग का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कितना मल्टीप्लायर इफेक्ट है?
यह कहना बहुत
मुश्किल है
क्योंकि, इस
उद्योग मे पैसा
चंद (फाईनांसीयर) लोगों
से कुछ लोगों
तक, और फिर
वापिस अनेक लोगों
(दर्शकों) से
चंद लोगों तक
पहुंचता है.
जनता का तो
सालाना रू 10-15000 करोड़
जाता है. अगर
कोई इसका विशेष
अभ्यास करे तो
शायद यह भी
पता चले कि
एक तरह से
यह उद्योग अर्थव्यवस्था में से बड़ी
मात्रा का सफेदधन
चंद लोगों की
तरफ फैकता है.
लेकिन उसका वापिस
अर्थव्यवस्था मे
(टैक्स या बॉक्स
ऑफिस का टैक्स
छोड़ कर) के
जरिए आना अभ्यास
का विषय है.
मार्केटिंग प्रमोशन...
कंज्यूमर प्रॉडक्टस बनानेवाली कंपनी
हिन्दुस्तान यूनिलीवर ने पिछले साल
(19-20) मे लगभग रू 38,785 करोड़ का
कारोबार किया,
इसमे से लगभग
रू 4750 करोड़ सिर्फ विज्ञापन (advertising) पर
खर्च हुए. इसके
अलावा कंपनी मार्केटिंग पर और भी
खर्चा करती है.
इसलिए इससे लाखो
लोगों को रोजगार
मिलता है. सोचने
लायक बात यह
है कि, रू 20,000 करोड़ वाला फिल्म
उद्योग मार्केटिंग और
विज्ञापन कितना
खर्चा करती है?
और कितने कंपनीयों को इसका काम
मिलता है, अगर
गिनेंगे तो
शायद ये आकड़ा
सैकड़ों मे
ही सिमट जाएगा.
बेनकाब होते चेहरे..
आए दिन, फिल्म
और मनोरंजन क्षेत्र से जुड़े कई
हस्तियां - लेखक,
कलाकार, निर्देशक, भारतीय
मूल्यों पर
टिप्पणी करते
नजर आते है.
उदारमतवादी चेहरे
के पीछे से
कुछ गिने चुने
लोगों का एजेंडा
चलाते हुए नजर
आते है. नागरिकता संशोधन कानून के
खिलाफ आंदोलन के
दौरान कई नामचीन
हस्तियां बेनकाब
हुई. कईयों ने
मंदिरों से
पैसा लेने की
बात की लेकिन
दूसरे धार्मिक स्थलों
के बारे में
चुप्पी साधी.
माना कि भारत,
अनेकता मे एकता
दर्शाने वाला
एकमेव देश है.
भारतीयता सहिष्णु है, सर्वसमावेशी है.
हालांकि फिल्म
उद्योग, “अमर, अकबर एंथनी” जैसे
फ़िल्में बनाकर
अपनी फ़िल्मों मे
इसकी दुहाई तो
देता है, लेकिन
वैयक्तिक स्तर
पर इस उद्योग
से जुड़े कई
लोगों के विचार
बहुत अलग नजर
आते है. "भारत
तेरे तुकडे होंगे
हजार" जैसी देश
विरोधी मानसिकता को
आधार देने मे
इस उद्योग की
कई हस्तियां नजर
आती है.
मेरी सोच मे,
साबुन अगर अच्छा है तो क्या उसको उसको दवाई की तरह खाना चाहिए? नहीं ना. तो, जिस व्यक्ती की जो खासियत है तो उसे सिर्फ उसी खासियत का उपभोक्ता बन कर रहे. उसे अपने घर मे या विचारो मे लाए ना लाएं ये अपनी अपनी सोच. खैर, ये
अपनी-अपनी सोच
है.
खेलता है इंडिया,शान से..
खेलकूद ऐसा क्षेत्र है जिसकी अर्थव्यवस्था फिल्म उद्योग से
कई मायनों मे
मिलती जुलती है.
दर्शक, प्रायोजक, और
ब्रॉडकास्टर के
पैसे पर यह
क्षेत्र चलता
है. भारत मे
कमाई की माने
तो क्रिकेट सबसे
ऊपर है, विशेष
रूप से आईपीएल.
लेकिन आईपीएल को
अगर एक उद्योग
माने तो, इस
उद्योग की आर्थिक
व्यवस्था पर
भी कई बार
सन्देह जताई गए
है, खासकर फाईनांसीयर और आय के
बारे मे, साथ
ही मैच फिक्सिंग का भूत बीच
बीच में सिर
उठाता रहता है.
काफी हद तक ये क्षेत्र फिल्म उद्योग से जुड़ा नजर आता है.इस क्षेत्र का भी मल्टिप्लायर इफेक्ट कितना है, है भी या नहीं?, ये भी अभ्यास का एक विषय हो सकता है.
नापतौल..
अगर ये आकडे
सही है तो,
राजनैतिक दलों
को प्रति वोटर (जिन्हीने वोट किया), करीब एक हजार रुपये ख़र्चे करने पडे
- ये बताना जरूरी है,कि मैं यह नहीं कह रहा हू ये पैसा उन्होंने वोटर को दिए. वोटर को मतदान करने के लिए. आकर्षित करने के लिए, प्रचार, प्रसार मे ये पैसा खर्च हुआ होगा. 2014 मे
यह लगभग रू
700 था, पाच साल
मे 40% बढ़ोतरी!
दिलदार नेताजी...
फिल्म और खेल
क्षेत्र की
तुलना मे राजनीतिक दल बड़े दिलवाले नजर आते हैं.
फिल्म और खेल
क्षेत्र एक
ओर सामान्य जनता
के कमाई पर
चलता है, वही
दूसरी ओर राजनीतिक दल सामान्य जनता
के लिए अपना
दिल ही नहीं,
बल्कि बटुआ भी
दिल खोलकर खोल
देते है. इसके
बावजूद कई नेताजी,
खिलाड़ी और
फिल्महस्तियों को
अपने साथ घुमाते
है!!
80-20%
लेकिन फिल्म और
क्रीड़ा क्षेत्र मे 80-20% का
नियम चलता है.
दोनों क्षेत्रों मे
80% फैन्स फिल्म या
खेल कैसा भी
हो, देखते ही
है. उन्होंने तो
आना ही है!
ये बात शायद
ये दोनों क्षेत्रों के खिलाड़ी अच्छी
तरह से जानते
है, इसलिए वे
सिर्फ बचे हुए
20%दर्शकों को
सिनेमा हॉल या
स्टेडियम मे
लाने के लिए
खर्चा करते है.
नेताजी के पास
इस विकल्प का
सुख नहीं है.
उन्हें ये पूरी
तरह से पता
नहीं होता, की
वोटिंग के लिए
कौन घर से
बाहर निकलेगा, और
कौन उन्हें वोट
करेंगा!!
उद्योग जरूरी है लेकिन देशहित मे..
उद्योग तो उद्योग
है, जब तक
सचोटी और नियम
पाल के किया
जाए. परेशानी तब
खड़ी होती जब,चंद
लोग अपनी सीमाओं
को भूल कर
देश मे विशिष्ट माहौल बनाने मे
लग जाते है.
चीन और पाकिस्तान जैसे भारत के
दुश्मनों को
खुशी होगी ऐसी
बाते करते है,
देश मे कुछ
अच्छाई होती तो
विलाप करते है.
समाज मे दुहाई
निर्माण हो
उन हरकतों मे
शामिल होते है?
और जब जवाबदेही बनती है तब
विक्टीम कार्ड
खेल कर गायब
हो जाते हैं.
प्राथमिकताएं अपनी अपनी...
स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए सरकार
लगभग रू 70000 करोड़
करने वाली है.
आम जनता रू
15-18000 करोड़ मनोरंजन पर
खर्चा करती है.
आखिर प्राथमिकता का
विषय है - ज़रूरी
मनोरंजन की
आड़ में फलफूल
रहे उदारमतवादी नक्सलियों का साथ देने
वालों की फ़िल्में देखना - जरूरत है
या अत्यावश्यक. राष्ट्रीय भावना का प्रसार
करने वाले या
फिर देश विरोधी
ताकतो को बल
देने वाले.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता...
एक तरह OTT प्लैटफॉर्म ने लॉक डाऊन
मे कुछ हदतक
सामान्य जनता
का मनोरंजन करने
मे मदत की.
लेकिन अगर आप
देखो तो आप
अचंबित हो जाएंगे.
वेबसिरीज की
भाषा, गालियाँ, दृश्य,
हिन्दू धर्म और
देवी देवताओं तथा
साधु महात्मा के
के बारे में
ईस्तेमाल होने
वाली भाषा, और
उन पर जोक्स,
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का
गलत तरीके से
ईस्तेमाल - ये
सभी नजर आएगा
जरूरत है कि
केंद्र सरकार जल्द
से जल्द इस
बात पर गौर
कर ऑनलाइन प्लैटफॉर्म को सेंसर बोर्ड
जैसे संबंधित कायदों
मे ले आए
जिससे यह क्षेत्र अनुशासित हो
जाए. हालांकि "पीके" फिल्म को क्लिअर
करने के लिए
सेंसर बोर्ड पर
भी लोगों का
गुस्सा आज भी है.
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का
गलत ईस्तेमाल मनोरंजन, खास कर फिल्म
उद्योग के लिए
नया नहीं है.
जो लोग नान
फिक्शन किताब पढ़ते
है उन्होंने शायद
हरिंदर सिक्का की
“कॉलिंग सहमत”
ये किताब जरूर
पढ़ी होगी. दो
साल पहले इसी
किताब पर आधारित
(सिक्का जी से
अनुमती और करार
करने के बाद)
राज़ी नाम
की एक फिल्म
आई. अगर आप
इस फिल्म का
अंत देखो तो,
यह लगेगा कि
सहमत को अपने
किए का और
भारतीय टीम का
खेद है. लेकिन किताब मे इसके एकदम उल्टा है. आखिर निर्माता और निर्देशक ही इस सवाल का जवाब दे पाएंगे. सिक्का जी की माने तो उन्होंने शुरुआत मे ही इस बदलाव का विरोध किया, काफी संघर्ष किया, अभी भी कर रहे हैं. लेकिन...
मर्जी है आपकी...
अस्सी और नब्बे
के दशक मे
दूरदर्शन पर
(शायद लोक सेवा
संचार परिषद का
बनाया हुआ) ट्रैफिक पुलिस का दुपहिया चलानेवालों को
हेल्मेट पहनने
के लिए प्रोत्साहित करने वाला एक
विज्ञापन आया
करता था. जिसमें
मेज पर रखे
दो नारियल में
से एक के
ऊपर हेलमेट रखकर
दोनों पर हथौड़े
से वार किया
जाता. हेलमेट वाला
सुरक्षित रहता
और बिना हेलमेट
वाला नारियल फूट
जाता था. इस
के बाद स्लोगन
प्रसारित होता
था ‘‘मर्जी है
आपकी, आखिर सिर
है आपका.’’
चलते चलते..
फिल्म और क्रीड़ा क्षेत्रों के
सेलिब्रिटी को
देखने के लिए
सामान्य जनता
भागदौड़ करती
है. मनोरंजन जरूरत
है लेकिन अत्यावश्यक नहीं. इसके के
नाम पर सीमापार की जा रही.
लेकिन अगर गौर
से समझो तो
ये दोनों उद्योग
सामान्य जनता
के खून पसीने
के कमाई और
बहुमोल वक़्त पर
चलते है. काफी
केसेस में आनेवाले धन का स्त्रोत पता नहीं, और
काफी मात्रा में
सफेद धन डार्क
होल मे जा
रहा है. केंद्र
सरकार जल्द से
जल्द ऑनलाइन प्लैटफॉर्म को सेंसर बोर्ड
जैसे संबंधित कायदों
मे ले आए
जिससे यह क्षेत्र अनुशासित हो
जाए.
मनोरंजन, क्रीड़ा और राजनीति क्षेत्र का गोल्डन ट्रँगल बनता है, कभी कभी ये जहरीला हो जाता है.
तो बस, समझिए
सच को. बाकी
मर्जी है आपकी!!
खुश रहिए. खुशहाली बढाए.
धनंजय मधुकर देशमुख,
मुंबई
Dhan1011@gmail.com
(लेखक एक स्वतंत्र मार्केट रिसर्च और बिज़नेस स्ट्रेटेजी एनालिस्ट है. इस पोस्ट मे दी गई कुछ जानकारी और कविता / गीत इन्टरनेट से साभार इकठ्ठा की गई है.)
Nice and true 👍
ReplyDeleteThanks 🙏
DeleteTruly said.
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