19 अगस्त
20, मुंबई
कौन हारेगा बिहार?
बिहार मे विधानसभा चुनाव
होने
है.
शायद
अगले
दो
से
तीन
महीनों
में
हो
जाए.
विद्यमान जदयू-भाजपा की सरकार,
एक
साथ
मिलकर
जनता
मे
वोट
मांगने
जाएगी
या
अलग
अलग,
ये
अभी
खुले
रूप
से
सामने
नहीं
आया
है.
चुनाव
के
मद्देनजर दलबदल
कार्यक्रम शुरू
हो
गया
है,
वातावरण निर्मिती की
जा
रही
है.
विद्यमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के
अगुआई
मे
कामकाज
ठीक
ठाक
ही
रहा,
लेकिन
पिछले
कुछ
अर्से
से
उनकी
प्रशासन पर
की
पकड़
कम
हो
रही
है
क्या
ऐसे
सवाल
उठाए
जा
रहे
हैं.
कुछ गिले तो जरूर होंगे ..
मुज़फ़्फ़रपुर शेल्टर स्कीम, जापनीज
इनसेफीलाईटीस की
वजह
से
बच्चों
की
मृत्यु,
श्रीजन
स्कैम,
कोरोना
परिस्थिति की
नकारात्मक हैंडलिंग, विशेष
रूप
से
श्रमिक
मजदूरों के
मामले
मे
और
अभी
उभरती
बाढ़
की
परिस्थिति. अमूमन,
जनता
के
दिमाग
में
किसी
भी
सरकार
के
कार्यकाल के
आखिरी
महीनों
मे
घटीं
घटनाएँ
ज्यादा
स्मरण
मे
रहती
है
(Last in, First Out). इसका
ध्यान
सभी
दलों
को
होगा.
उनहत्तर साल के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार मे सबसे ज्यादा कार्यकाल करने वाले मुख्यमंत्री है (5100 दिन). हालांकि लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी का संयुक्त कार्यकाल करीबन 5400 दिनों का है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कार्यक्षमता की वजह सेसामान्य जनता को शायद उनसे अधिक उम्मीदे थी, और उसी कमी की दरी को खाई बनाने काम उनके विरोधक करेंगे.
उंट किस ओर करवट बदलेगा?
1957 से
1990 तक
बिहार
कॉन्ग्रेस का
गढ़
था.
लेकिन
उसके
बाद
पार्टी
कभी
भी
प्रमुख
भूमिका
मे
नही
आ पाई. नब्बे से
राजद
और
ज़दयू
का
जादू
सर
चढ
के
बोला.
हालांकि राज्य
की
प्रगति
मे
कोई
विशेष
फरक
नजर
नहीं
आया.
2005 मे
नीतीश
कुमार
सोशल
इंजीनियरिंग और
विकास
के
मुद्दो
को
लेकर
सत्ता
मे
आए,
सुशासन
बाबु
की
उनकी
छवी
निर्माण हुई.
2014-15 मे
राष्ट्रीय स्तर
पर
अपनी
पहचान
बनाने
के
उनकी
तमाम
कोशिशे
नरेंद्र मोदी
के
कार्यक्षम और
निश्चायक छवी
के
सामने
टिक
नहीं
पाई.
2019 के
लोकसभा
चुनाव
आते-आते नीतीश कुमार
खुल
के
नरेंद्र मोदी
के
तारीफों के
पुल
बांधने
लगे,
इसीके
चलते
उनकी
पार्टी
को
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चे
मे
बराबर
का
हिस्सा
भी
दिया
गया
था
(चालीस
मे
से
17 सीटें).
उस
का
असर
भी
दिखा,
एनडीए
को
राज्य
में
बड़ी
सफ़लता
मिली
(चालीस
मे
से
उनतालीस), हालांकि ज़दयू
के
साथ
लोकजनशक्ति पार्टी
(LJP) भी
थी.
खैर, कहते है राजनीति मे एक साल काफी बड़ा समय होता है.
2015 मे
महा
गठबंधन
की
हवा
बनी
थी,
जिसके
चलते
2014 की
अभूतपूर्व मोदी
लहर
सिर्फ
एक
साल
मे
कम
पड़ती
दिखाई
दी.
फरवरी
2015 मे,
नीतीश
कुमार
के
अगुआई
मे
राज़द,
कॉन्ग्रेस और
ज़दयू
की
सरकार
बनी.
लेकिन
नौ
महीनों
में
नीतीश
कुमार
ने
राजद
से
नाता
तोड़कर
भाजपा
के
साथ
सरकार
बना
ली.
चुनाव
से
पहले,
बड़ी
आशाओं
से
पिरोया
हुआ
महागठबंधन बिखर
गया,
शायद
कभी
ना
जुड़ने
के
लिए.
2019 मे महाराष्ट्र मे इसी कहानी की एडवांस पिक्चर चली - जिसमें चुनाव से पहले के गठबंधन साथी, शिवसेना और भाजपा, चुनावों के निर्णय आने के बाद अलग अलग हो गए - वजहे चाहे जो भी हो. 35 रातों मे कुछ तो हुआ होगा जिससे पच्चीस सालो की दोस्ती टूट गई, या तोड़ दी गई.
किसीने सच ही
कहा
है,
"भरोसा जितना किमती होते जाता है, धोका उतना ही महंगा होते जाता है!!"
चुनावी मुद्दा क्या है?
बिहार चुनाव में
अबकी
बार
कोई
मुख्य
मुद्दा
दिखाई
नहीं
दे
रहा
है.
एक
ओर
केंद्र
सरकार
की
कामयाबियां है,
लेकिन
दूसरी
ओर
कोरोना
महामारी की
वजह
से
आई
व्यापारी मंदी
और
रोजगार
मे
कमी
भी
है.
हालांकि, महामारी के इस मंदी
की
परेशानी कम
करने
के
लिए
केंद्र
सरकारने बीस
लाख
करोड़
रुपये
का
आत्मनिर्भर भारत
पैकेज
लाया
- जिसमें
किसान,
गरीब
और
छोटे
उद्योगों के
लिए
कुछ
राहत
है.
इस
कार्यक्रम को
जमीनीस्तर पर
कैसे
लागू
किया
गया
इसपर
इसकी
कामयाबी निर्भर
करती
है.
केंद्र सरकारने ट्रिपल
तलाक,
धारा
370, नागरिकता संशोधन
कानून,
श्रीराम जन्मभूमि के
मुद्दो
को
पूरा
कर
अपना
वादा
निभाया
है,
लेकिन
राज्य
के
चुनाव
में
इसका
कितना
सकारात्मक परिणाम
होगा
यह
बताना
कठिन
है.
उदाहरण
के
तौर
पर,
ट्रिपल
तलाक
और
धारा
370 खत्म
करने
के
बावजूद,
पिछ्ले
साल
महाराष्ट्र मे
हुए
चुनाव
मे
भाजपा
को
इसका
बहुत
सीमित
लाभ
हुआ.
सो, इस वक्त कोई ठोस चुनावी मुद्दा दिखाई नहीं दे रहा है. करीबन पंद्रह साल के कार्यकाल के बाद भी अगर आप रोटी, कपड़ा, विकास की बाते करे तो ये शायद जनता के साथ बेमानी होगी.
हमेशा की तरह,
इस
बार
भी
धर्म
और
जाति
के
समीकरण
भी
काफी
महत्वपूर्ण भूमिका
अदा
करेंगे.
राज्य
के
युवाओं
के
लिए
कुछ
नया
सोचना
होगा.
विधायक
राज
से
उठकर,
सबके
लिए
कुछ
ना
कुछ
कार्यक्रम तय
करने
होंगे.
लब्बोलुआब ये है की, बिहार मे चुनावी मुद्दा और नैरेटीव अभी सेट होता दिखाई नहीं दे रहा.
राह में है रोड़े..
2019 के
लोकसभा
चुनाव
के
वक्त
भाजपा,
लोजपा
और
ज़दयू
एनडीए
ने
एकसंध
होकर
चुनाव
जरूर
लडे,
लेकिन
2015 मे
बनी
राज्य
सरकार
मे
लोजपा
की
हिस्सेदारी नहीं
थी,
सो
लोजपा,
नीतीश
कुमार
की
सरकार
को
अपनी
नहीं
मानतीं.
इसलिए
इस
बार,
एनडीए
को
एक
नए
सिरे
से
आपसी
भाईचारा बढ़ाना
होगा.
2015 के
चुनाव
में
भाजपा
ने
कुछ
स्थानीय छोटे
दल
जैसे
वीआईपी,
आरएलएसपी और
एचएएम
(HAM) को
साथ
लिया
था,
लेकिन
महागठबंधन की
हवा
के
चलते
शायद
इनको
जरूरत
से
ज्यादा
महत्व
दिया
गया,
क्योंकि ये
तीनों
दल
चुनाव
मे
कुछ
खास
नहीं
कर
पाए.
बिहार की राजनीति धर्म
और
जाती
व्यवस्था के
इर्दगिर्द घूमती
है,
इन्हें
नजर
मे
रखकर
चुनावी
दावपेच
लगाए
जाते
हैं,
चुनाव
जीते
जाते
है.
ईन
सभी
छोटे
दलों
का
बिहार
की
राजनीती मे
अस्तित्व तो
है
लेकिन
उनका
संख्या
प्राबल्य क्या
हो
सकता
है
यह
कोई
नहीं
समझ
पाता
- क्योंकि यहा
की
समाजव्यवस्था जटिल
है.
ये भी है अहम..
2019 मे
मिली
कामयाबी से,
भाजपा
के
लिए
एक
बार
फिर
2015 जैसी
स्थिति
निर्माण हो
सकती
है.
हालांकि अब
तक
तो
दोनों
दल
साथ
मे
चुनाव
लड़ने
की
भाषा
कर
रहे
हैं,
बशर्ते
लोजपा
की
महत्वकांक्षा को
सही
आकलन
किया
गया
तो
यह
संभव
भी
हो.
अगर
तीनों
दल
साथ
मिलकर
चुनाव
लड़ते
हैं
तो,
बात
जीत
की
नहीं
होगी.
बात
होगी,
विपक्ष
से
कौन
कितना
हारेगा
- हार
का
जिम्मा
उम्मीदवार पर
ज्यादा
होगा,
बजाय
पार्टी
के.
अब तक तो
भाजपा
और
जदयू
के
सरकार
के
खिलाफ
बहुत
बड़ी
एंटी-ईनकमबंसी तो दिखाई दे
नहीं
रही.
अगर
पाच
साल
के
ठीकठाक
कार्यकाल के
बाद
कोई
विधायक
जीत
नहीं
पाता
है
तो
हार
उसकी
है
- ना
की
गठबंधन
या
पार्टी
को.
क्यूंकि भाजपा
के
पास
एक
सिद्धहस्त (proven) चुनावी मशीन
है.
साथ
ही
मे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
की
निश्चायक छवी
और
कार्यक्रम है
(जो आए दिन बढाए जा रहे है - जैसे, किसान क्षेत्र के लिए 1 लाख करोड़, नई शिक्षा नीति, एकसमान परीक्षा, नॅशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी).
लेकिन फिर भी, अतिविश्वास या समन्वय का अभाव मान-अपमान के नए खेल शुरु कर सकता है.
हवा बहते रहती है..
फ़िलहाल महाराष्ट्र की राजनीती गरमाई
है.
फिल्म
कलाकार
सुशांत
सिंह
राजपूत
केस
की
वजह
से
महाराष्ट्र सरकार
(बिहार
के
परिवेश
मे
कॉन्ग्रेस), केंद्र
सरकार
और
बिहार
सरकार
के
बीच
तनातनी
नजर
आई. बिहार के एक
भूमिपुत्र की
मृत्यु
महाराष्ट्र के
कॉन्ग्रेस शासित
सरकार
के
कार्यकाल मे
हुई
और
उसकी
जांच
सीबीआई
को
दी
जाने
के
लिए
बिहार
सरकारने अहम
भूमिका
निभाई.
इसका
असर
कुछ
हद
तक
हो
सकता
है
- कितना
यह
इस
वक्त
कह
पाना
कठिन
है,
लेकिन,
सभी
दल,
हमने
अपनी
भूमिका
निभाई
इसका
प्रसार
जरूर
करेंगे.
महाराष्ट्र के
पूर्व
मुख्यमंत्री और
विरोधी
पक्षनेता देवेंद्र फडणवीस
इस
बार
बिहार
चुनाव
में
विशेष
भूमिका
निभाएंगे.
एक तरफ कॉन्ग्रेस अभी
भी
पूर्णकालिक खिवैये
की
राह
में
है,
तो
दूसरी
तरफ
राज़द
के
तेजस्वी यादव
अपनी
नाव
संतुलित करने
मे
लगे
है
(ऐसे
मे
सशक्त
विरोधीपक्ष नेता
होना
भी
कभी
कभी
परिणामकारक होता
है).
वे
कम
से
कम
नुकसान
होने
देने
की
मानसिकता मे
होगे.
भाजपा के पास
राष्ट्रीय मुद्दे
है,
स्थानिक नेतृत्व भी
है
लेकिन
जरूरी
होगा
इनके
बीच
का
जमीनी
स्तर
पर
समन्वय.
छोटे
दल
अपनी
अपनी
भूमिका
ढूँढने
मे
लगे
होंगे.
ज़दयू फ़िलहाल तो एक धाकड बल्लेबाज की तरह खडा है - लेकिन फॉर्म में से जाने के लिए चंद गलतियां काफी होती है. इन सभी मे लोजपा शायद गैप पार्टी के रूप में उभर आ सकती है, बशर्ते वे अपने पत्ते सही खेले. राज़द, कॉन्ग्रेस और छोटे दलों के वोट बँक मे जो सेंध लगा पाएगा उसे फायदा होगा.
पिछ्ली विधानसभा चुनाव
मे
राज़द
और
कॉन्ग्रेस को
107 सीटें
मिली
थी.
अब
की
बार
जितने
से
ज्यादा,
कौन
कितना
हारेगा
इस
पर
पूरे
खेल
की
मदार
रहेंगी.
चाहिए टिकाऊ गठबंधन..
बिहार की जनता
ने
एक
महा
गठबंधन
टूटते
हुए
देखा.
कर्नाटक में
कॉन्ग्रेस के
अगुआई
वाले
गठबंधन
का
हश्र
देखा.
मध्य
प्रदेश
में
बहुमत
मिलने
के
बावजूद
कॉन्ग्रेस को
बिखरता
देखा.
बहुमत
होते
हुए
भी
राजस्थान कॉन्ग्रेस का
"नकारा-निकम्मा" विवाद देखा. महाराष्ट्र मे
क्या
हाल
है
यह
भी
उन्हें
मालूम
है.
झारखंड
में
हालात
बीच
बीच
में
बदलते
रहते
हैं.
य़े सभी उदाहरण
कॉन्ग्रेस की
क्षमता
और
क्षेत्रीय दलों
के
तरफ
उनके
रवैये
को
अधोरेखित करता
है.
हिलसा है कमाल की..
पिछले साल करीबन
साढ़े
तीन
सौ
करोड़
रुपए
की
राशि
खर्च
कर
पश्चिम
बंगाल
स्थित
फरक्का
बाँध
का
नेवीगेशन लॉक
बदल
दिया
गया,
जिस
वजह
से
बिहार
और
उत्तर
प्रदेश
की
लाडली
मछली
हिलसा
अब
काफी
बड़ी
मात्रा
मे
पश्चिम
बंगाल
से
बिहार
के
रास्ते
उतर
प्रदेश
पहुंचेंगी. देखने
मे
यह
छोटी
बात
है,
लेकिन
इसका
सकारात्मक असर
पेट,
दिमाग
और
व्यावसाय पर
होगा.
ठीक ऐसे ही
पश्चिम
बंगाल
के
कुछ
नेताओ
की
बिहार
के
चुनावी
दंगल
मे
भूमिका
रहेगी.
हैदराबाद के
ओवैसी
और
दिल्ली
के
मुख्यमंत्री अरविंद
केजरीवाल भी
अपनी
भूमिका
निभाने
के
लिए
बेताब
होंगे
- खासकर
नागरिकता संशोधन
कानून
के
विरोध
का
आंदोलन,
दिल्ली
और
कर्नाटक में
हुए
दंगों
के
परिवेश
में.
अंत
मे
ईनके
"वोट
वॉल्ट"
मे
किसको
हिस्सा
मिलेगा
उसपर
उनकी
सफलता
कुछ
हद
तक
निर्भर
होगी,
अब
वो
कितना
मिलता
है
यह
तो
वक़्त
ही
बताएगा.
नया, अलग और बेहतर..
चुनावो मे, दल
की
प्रतिष्ठा और
कार्यक्रम, उम्मीदवार का
रिकॉर्ड, माली
हालात
के
साथ,
उनके
पास
"x" फैक्टर
होना
भी
महत्वपूर्ण होता.
इस
का
असर
लोगों
का
ध्यान
आकर्षित करने
मे
होता
है,
और
विरोधको को
एक
कदम
पीछे
फेंकने
मे
भी
मदत
होती
है.
पिछ्ली बार की
तुलना
इस
बार
आप
क्या
“नया”
अपना
रहे
है
- चाहे
वो
कॅम्पेन हो
या
फिर
सोशल
मीडिया.
और
जो
पिछ्ली
बार
कर
रहे
थे,
उसे
इस
बार
और
बेहतर
तरीके
से
कैसे
करे
इस
बात
पर
ध्यान
देना
होगा.
कोरोना के चलते
सोशल
डिस्टनसिंग को
अपनाना
होगा
- भाजपा
ने
वर्चुअल रैलीज
कर
के
एक
झलक
दिखाई
है.
हो
सकता
है,
लोगों
से
इस
तरह
से
ऑनलाइन
जुड़ने
के
और
नए
और
बेहतर
तरीके
हो
सकते
हैं.
पार्टियों को
इस
बार
"आउट
ऑफ
द बॉक्स" सोचना होगा.
उत्तर प्रदेश दिखा रहा है राह?
उत्तर प्रदेश मे
समाजवादी पार्टी
और
बहुजन
समाज
पार्टी
के
मुख्य
नेताओ
ने
भगवान
परशुराम की
मूर्ति
लगाने
की
योजना
बनाई
है.
क्या
यह
ब्राह्मण समाज
को
जोड़ने
का
सोशल
इंजीनियरिंग का
एक
प्रयोग
है?
क्या
इस
तरह
का
प्रयोग
बिहार
में
कोई
करने
वाला
है?
गौरतलब
है
कि,
ब्राह्मण समाज
भाजपा
का
पारंपरिक मतदाता
माना
जाता
है.
चलते चलते..
कई साल पहले
एक
खिलाड़ी ने
कहा
था
की
उसके
देश
की
फुटबॉल
टीम
(जो
उस
वक़्त
काफी
कमजोर
थी)
ब्राजील (या
ऐसे
ही
किसी
तगडी
टीम)
से
खेल
रही
थी
- तो
उसके
कॅप्टन
ने
इन्हें
पूछा,
हारने
के
बाद
क्या
करोगे
तब
उन्होंने कहा,
हमे
तो
आदत
है
लेकिन
अगर
आप
हार
गए
तो
फिर
शायद
ही
खेल
पाओगे,
दुनिया
मे
जश्न
होगा.
मतलब,
कभी
कभी
किसी
के
जीत
से
ज्यादा
हार
का
ज्यादा
मह्त्व
है.
बिहार विधानसभा में
२४३
सीटे
है,
मैजिक
फिगर
१२३
का
है
लेकिन
किसी
भी
पार्टी
को
अपने
बलबूते
पर
इतना
बहुमत
मिलेगा
ये
सोचना
शायद
बहुत
बड़ा
आशावाद
होगा.
अगर
किसी
गठबंधन
ने
मिलकर
सरकार
में
आना
है
तो
उनके
पास
कम
से
कम
१४०-१५० सीटे होनी
चाहिए
, वर्ना
कर्णाटक , राजस्थान में
जो
हुआ
उसकी
रिपीट
पिक्चर
यहाँ
भी
दिख
सकती
है.
हालाँकि यहाँ
महाराष्ट्र जैसी
परिस्थिति निर्माण न हो इसके लिए
भाजपा
पूरी
तरह
से
सजग
होगी.
पिछले साल दिल्ली
मे
हुए
विधानसभा चुनाव
मे
आप
पार्टी
की
अभूतपूर्व जीत
हुई,
इस
नकारात्मक नतीजे
का
फायदा
उठाने
का
प्रयास
भाजपा
के
साथी
कर
सकते
है.
बिहार मे जितने से ज्यादा, जो
"ना हारे" इस बात पर ज्यादा गौर करेगा उसे शायद अच्छा परिणाम प्राप्त होगा. अगर साथ मे लड़कर जितना है तो एक दूसरे के लिए भागना होगा - ठीक वैसे, जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज एक दूसरे के एक एक रन के लिए भागते है - बजाय सिर्फ चौके छक्के मारने के.
भारतीय अध्यात्म, संस्कृति, इतिहास
और
राजनीति में
बिहार
का
अहम्
स्थान
है,
अभूतपूर्व योगदान
है.
आनेवाले समय
में,
“आत्मनिर्भर भारत”
की
संकल्पना को
अगर
पूर्णरूप से
कामयाब
होना
है,
तो
उसकी
शुरुआत
बिहार
जैसे
राज्य
से
होनी
चाहिए.
कुछ लोग कहेंगे
कि
लेखक,
जो
जितने
के
बजाए
हार
की
बात
कर
रहे
हैं,
नकारात्मक सोच
के
है.
खैर,
अपनी-अपनी सोच. जनता
क्या
सोचती
है,
ये
ज्यादा
महत्वपूर्ण है.
"जनता
?" महाकवि
रामधारी सिंह
दिनकर
की
माने
तो
-
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में..
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में..
कालाय तस्मै नमः.
धनंजय मधुकर देशमुख,
मुंबई
Dhan1011@gmail.com
(लेखक एक स्वतंत्र मार्केट रिसर्चऔर बिज़नेस स्ट्रेटेजी एनालिस्ट है. इस पोस्ट मे दी गई कुछ जानकारी और इन्टरनेट से साभार इकठ्ठा किए गए है.)
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