ना जाने अब क्या होगा?
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच टी 20 क्रिकेट मैच शुरू है, आखिरी ओवर मे भारत को जीत के लिए १५ रन निकालाने है, और ऑस्ट्रेलिया को चाहिए ३ विकेट्स. मेरी १२ वर्षीय बेटी मासूमियत से मुझे पूंछती है, "बाबा अब क्या होगा?".
यह प्रश्न हम सभी को हमेशा कभी ना कभी सताता है. कभी तबीयत के बारे में, कभी शेयर मार्केट, कभी क्रिकेट, कभी घर परिवार या कभी आपके पसंदीदा टीवी सीरियल्स में. गुजरते हुए वक्त के साथ इन प्रश्नों की परते खुलती हैं और हमे इनका उत्तर मिलते रहता हैं.
हिन्दुस्तान मे आज जो एक बड़ा प्रश्न सब को सता रहा है, वो यह कि "आज से एक महीने बाद देश मे राजनैतिक हालात कैसे होंगे?". अगले कुछ दिनो मे पाच राज्यों मे विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इसमे से तीन राज्यों - मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगड, में भाजपा की सत्ता है. पार्टी के शीर्ष नेता यहा पर अपने राजनैतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण दाव खेल रहे हैं.
अगर हम अलग अलग न्यूज चैनल्स के "ओपिनियन पोल्स" के नतीजे, या फिर प्रसारमाध्यमो में हो रही चर्चा, शेयर मार्केट और "अन्य" स्त्रोतो की माने तो इन तीनो राज्यों मे काटे की टक्कर नजर आ रही है. छत्तीसगढ़ मे शायद डॉ साहब फिर अपनी सरकार बनाने मे कामयाब हो जाए, लेकिन भाजपा मध्यप्रदेश मे बमुश्किल सत्ता दोहराने के आसपास दिखाई दे रही है. वहा पर पार्टी को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है. हालांकि "महागठबंधन" कि हिमाकत करने वाली कुछ पार्टियां, जैसे कि बसपा और एनसीपी अपने बलबूते पर लड़ रही हैं. ये एक विरोधाभास है या फिर अगले साल के लोकसभा चुनावी दंगल को ध्यान में रखते हुए एक सोची समझी रणनीति है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. फिलहाल की स्थिति में इसका अगर कुछ फायदा हुआ तो वह भाजपा को ही होगा.
राजस्थान मे भी हालात शायद भाजपा के पक्ष मे नही दिखाई देते है. हालांकि यहा पर राज्य मे सत्ता दोहराना हमेशा से ही बहुत कठिन है, लेकिन इस बार भाजपा मे पार्टीगत संघर्ष ज्यादा कठोर दिख रहा है. इसलिए मौजूदा परिवेश में भाजपा के लिए यहा कामयाब होना बहुत जरूरी है.
केन्द्रीय रेलमंत्रीजी फिलहाल एक सभा में कहा कि भाजपा को अगले लोकसभा चुनावों मे लगभग 300 सीटें मिलेगी. यह बात उनके लिए एक मार्केट रिसर्च कंपनी ने सितम्बर मे किए हुए देशव्यापी सर्वेक्षण (सितम्बर जिसमे लगभग 4.5 लाख मतदाताओ से बात की गई थी) से प्रतीत हुईं. हालांकि राज्य और केंद्र के चुनाव ये अपनेआप मे अलग-अलग विषय है लेकिन हवा का रुख माने तो भाजपा को फायदा होता दिख रहा है.
मई २०१४ मे केंद्र मे भाजपा की सरकार बनी, और उसके लगभग छह महीने बाद महाराष्ट्र मे विधानसभा चुनाव घोषित हुए तो पार्टी के राज्य के कुछ नेताओं ने मांग की भाजपा को राज्य के २८८ विधानसभा क्षेत्रों मे से लगभग १७७ विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी, सो वे इसी को आधार मानकर शिवसेना से गठबन्धन चाहते थे. लेकिन बात नहीं बनी और दोनों पार्टिया अलग-अलग लड़ी, हालाँकि पिछले चार सालों से दोनों पक्ष साथ मे मिलकर सरकार चला रहे हैं. फिलहाल महाराष्ट्र राज्य मे काफी हद तक एक साफ सुथरी, स्थिर और "काम करने वाली" सरकार है.
अगर हम रेल मंत्रीजी के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण के नतीजे को समझे तो ये पता चलता है कि भाजपा इन तीनों राज्यों की बहुतांश विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखेंगी. लेकिन वही पर अगर राज्यों के सर्वेक्षणों पर नजर डाले तो भाजपा यहा पर बहुत अच्छा कर पाएगी ऐसा प्रतीत नहीं होता. यह विरोधाभास है.
ख़ैर ११ दिसम्बर को जब इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सामने आएँगे तो काफी सारी नई परते खूलेंगी, काफी नई चीजे सामने आएँगी, जिनसे हो सकता है कि आने वाले वक्त में कई नए समीकरण बने.
अगर हम दोनों विषयों का विश्लेषण करे तो यह पता चलेगा कि अगर इन तीन राज्यों मे अगर सत्ता बदलाव हुआ तो पार्टी के कुछ शीर्ष नेता केन्द्रीय राजनीति में फिर से सक्रिय होते नजर आएंगे या फिर होना चाहेंगे. पार्टी के लिए यह कितना फायदेमंद है या फिकर की बात है यह बताना मुश्किल है. क्योंकि जब पार्टियों के बीच का संघर्ष एक नतीजे पर पहुँचता है उसके बाद पार्टियों में पार्टी अन्तर्गत संघर्ष शुरू होता है. भाजपा मे यह संघर्ष कितना होगा और अगले लोकसभा चुनावों से पहले हवा कितनी स्थिर होगी इस बाब पार पार्टी के शीर्ष नेतागण अभी से चिंतित होंगे. शायद इसी वजह से इन तीनो राज्यों मे पार्टी एडीचोटी का जोर लगा रही है.
पार्टी के सर्वोच्च नेता पहले से ही न्याय व्यवस्था (judiciary), आर्थिक व्यवस्था (रिजर्व बैंक के साथ तनातनी) , जांच व्यवस्था (सिबीआय) के साथ संघर्षशीत है. प्रसार माध्यम इन नेताओं से कितना "प्रेम" करते हैं यह "सूरज को दिया दिखाने" जैसा होगा. साथ ही मे "केंब्रिज एनालिटिक, फेसबुक, गूगल" जैसी विदेशी संस्थाएं भारतीय राजनीति पर विशेष नजर लगाए हुए हैं.
कॉंग्रेस की बात करे तो, मेरे खयाल से "ऊंट ने करवट" बदली पिछले अगस्त मे. यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके गुजरात के एक शीर्ष नेता अपनी राज्यासभा की सीट बचाने मे "कामयाब" हो गए. यह "कामयाबी" इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि पार्टी के विधायको का एक बड़ा तबका शंकरसिंह वाघेला की बगावत की तरफ बढ़ रहा था. बात इतनी बढ़ गयी कि पटेल साहब ने अपने ४८ विधायकों को बंगलोर "भेज" दिया. खैर अंत में वे अपनी सीट बचा पाने मे कामयाब जरूर हुए लेकिन अगर सत्ता के गलियारों की माने तो इसकी "मशक्कत और लागत" काफी बड़ी थी. इतनी बड़ी "मशक्कत" को अंजाम देने के लिए जो "दाना पानी" का इंतजाम किया गया होगा वो काफी "बड़ा और विविध रंगी" होगा इसमे कोई दो राय नहीं होनी चाहिए. सवाल यह है कि 2014 के लोकसभा बुरी तरह से हारने बाद, पार्टी की माली स्थिति पर 2017 तक कुछ ना कुछ तो बुरा असर तो जरूर गिरा होगा, इनमे अगर आप 2014 से जून 2017 तक हुए विधानसभा चुनावों को जोड़े तो यह बात और गंभीर होगी.
लेकिन बावजूद इसके "बाबूभाई" अपनी सीट "काबिल" रख पाए. इससे एक बात स्पष्ट होती है कि विपक्षी पार्टियों की तरह कुछ "चुनावी थैलिया" भी शायद महागठबंधन बना रही है. इसका असर कुछ उपचुनावों मे भी दिखाई दिया.
हालांकि इन उपचुनावों के नतीजों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई तो कोई गलत नहीं क्यूंकि इससे भाजपा को बहुत कुछ नुकसान नहीं हुआ, अगले चुनावो के लिए महज ६ -८ महीने रहते इसका खासा असर नहीं होता. साथ ही मे पार्टी को कुछ नसीहत मिली होगी. या फिर यह इनके अगले चुनावो की रणनीति होगी.
लेकिन एक बात को नजरअंदाज करना भाजपा के लिए महंगा हो सकता है, वह है, ऊंट की चाल. ऊँट ने गुजरात मे काफी लंबी दौड़ लगाई हालांकि उसे मनचाही सफलता नहीं मिली, लेकिन पार्टी मे इससे विश्वास की उम्मीद जागी. कर्नाटक मे तो उंट की चाल और बुद्धि "बहुत तेज" दिखाई दी.
"चुनावी थैलिया" सोच रही होगी कि "दाँव" किधर लगाए.
मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, इनसॉल्वंसी कोड रूपी जो कुछ "कड़वी" दवाईयां पिलाई है (हालाँकि ये मेरा व्यक्तिगत मत नहीं है) उससे इन "चुनावी थैलियो" की संख्या या क्षमता कम जरूर हो गई होगी. साथ ही में मोदी सरकारने सत्ता मे आते ही जिस तरीके से कुछ विदेशी "गैरसरकारी संस्थाओं (NGO)" की जांच की या फिर उनकी फंडिंग की नकेल कसी शायद इन्ही वजहो से विदेशी संस्थाओ की "दिलचस्पी" भारतीय चुनावों में अधिक हो गई होगी. इसका नतीजा कभी कभी चर्च के पादरियों द्वारा लिखे गए पत्र में दिखाई देता है. अगर कांग्रेस अध्यक्ष के रफाल सौदे संबंधी बयानों को समझे तो उनसे पार्टी का तगड़ा "फ्रेंच कनेक्शन" नजर आता है. पिछले राष्ट्राध्यक्ष ओलैंड ने जिस तरीके से रफाल सौदे के संबंध मे बयान दिए हैं उससे तो यही जाहिर होता है. यह संघर्ष और धारदार होते दिख रहा है.
इसका सार या "लब्बोलुबाब " ये है कि भाजपा को आने वाले वक्त मे कड़ी परीक्षा देनी होगी. पार्टी को किसीभी मुगालते मे रहना काफी महंगा पड़ सकता है.
अगर भाजपा इन तीन राज्यों मे अपने बल पर सरकार नहीं बना पाई तो इसका परिणाम क्षेत्रीय राजनीति पर जरूर होगा. आनेवाले "महागठबंधन" पर होगा. जो कोई दल या नेता इस "महागठबंधन" मे जाने की संभावना रखते हैं उन्हें रोकने की किमत बहुत बढ़ सकती है. हर बार जांच या फ़ाइल काम नहीं करती.
महाराष्ट्र मे अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. अगर भाजपा इन तीनो राज्यों की सत्ता से बाहर हो जाती है तो शिवसेना, एनसीपी और कुछ छोटे दलों की "मोलतोल क्षमता (बार्गेनिंग पावर)" बढ़ जाएगी या फिर वे थोड़े कम लचीले हो जाएंगे. हालांकि शिवसेना ने भाजपा का भरोसा नहीं तोड़ा, साथ ही मे पार्टीप्रमुख उद्धव ठाकरे और राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के संबंध काफी अच्छे हैं. दोनों के बीच संवाद है. लेकिन राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. विशेषत महाराष्ट्र मे, क्योंकि यहा पर सभी पक्षों के मित्र "श्री शरद पवार जी " का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता.
इसी वजह से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस इस पसोपेश में होंगे कि राज्य में चुनाव कब कराए. अगर उनकी पार्टी इन तीन राज्यों मे चुनाव हारती है तो शायद वे मोदी सरकार की लोकप्रियता का साथ लेकर लोकसभा चुनावों के साथ राज्य के चुनाव कराने के पक्ष में हो सकते हैं.
अगर वे लोकसभा चुनावों के बाद राज्य में चुनाव कराते हैं उसके लिए पार्टी का लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन जरूरी है.
फिलहाल तो वे उनके पसंदीदा (पेट) प्रोजेक्टस को रफ्तार देते हुए नजर आ रहे हैं. मराठा आरक्षण का विषय भी कुछ हद तक अपनी मंजिल पहुँचता दिख रहा. पार्टी की तरफ से राज्य मे "CM चषक" के अन्तर्गत सभी २८८ विधानसभा क्षेत्रों मे खेल और कला स्पर्धाओं का आयोजन किया गया है. यह "खेला" जनवरी तक जारी रहेगा. इससे तो यही लगता है कि वे अपना मन बना चुके हैं.
कुछ भी हो, "अब क्या होगा?" यह प्रश्न फिर भी सताता रहेगा. इससे निजात पाए और खुश रहे.
किसी ने सच ही कहा है,
"क्यों डरे कि जिंदगी में क्या होगा,
हर वक़्त क्यों सोचे की बुरा होगा !!
बढ़ते रहे बस मंजिल की और
हमें कुछ मिले या न मिले,
तज़ुर्बा तो नया होगा!!"
- धनंजय मधुकर देशमुख
मुंबई
21 नवम्बर 2018
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच टी 20 क्रिकेट मैच शुरू है, आखिरी ओवर मे भारत को जीत के लिए १५ रन निकालाने है, और ऑस्ट्रेलिया को चाहिए ३ विकेट्स. मेरी १२ वर्षीय बेटी मासूमियत से मुझे पूंछती है, "बाबा अब क्या होगा?".
यह प्रश्न हम सभी को हमेशा कभी ना कभी सताता है. कभी तबीयत के बारे में, कभी शेयर मार्केट, कभी क्रिकेट, कभी घर परिवार या कभी आपके पसंदीदा टीवी सीरियल्स में. गुजरते हुए वक्त के साथ इन प्रश्नों की परते खुलती हैं और हमे इनका उत्तर मिलते रहता हैं.
हिन्दुस्तान मे आज जो एक बड़ा प्रश्न सब को सता रहा है, वो यह कि "आज से एक महीने बाद देश मे राजनैतिक हालात कैसे होंगे?". अगले कुछ दिनो मे पाच राज्यों मे विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इसमे से तीन राज्यों - मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगड, में भाजपा की सत्ता है. पार्टी के शीर्ष नेता यहा पर अपने राजनैतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण दाव खेल रहे हैं.
अगर हम अलग अलग न्यूज चैनल्स के "ओपिनियन पोल्स" के नतीजे, या फिर प्रसारमाध्यमो में हो रही चर्चा, शेयर मार्केट और "अन्य" स्त्रोतो की माने तो इन तीनो राज्यों मे काटे की टक्कर नजर आ रही है. छत्तीसगढ़ मे शायद डॉ साहब फिर अपनी सरकार बनाने मे कामयाब हो जाए, लेकिन भाजपा मध्यप्रदेश मे बमुश्किल सत्ता दोहराने के आसपास दिखाई दे रही है. वहा पर पार्टी को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है. हालांकि "महागठबंधन" कि हिमाकत करने वाली कुछ पार्टियां, जैसे कि बसपा और एनसीपी अपने बलबूते पर लड़ रही हैं. ये एक विरोधाभास है या फिर अगले साल के लोकसभा चुनावी दंगल को ध्यान में रखते हुए एक सोची समझी रणनीति है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा. फिलहाल की स्थिति में इसका अगर कुछ फायदा हुआ तो वह भाजपा को ही होगा.
राजस्थान मे भी हालात शायद भाजपा के पक्ष मे नही दिखाई देते है. हालांकि यहा पर राज्य मे सत्ता दोहराना हमेशा से ही बहुत कठिन है, लेकिन इस बार भाजपा मे पार्टीगत संघर्ष ज्यादा कठोर दिख रहा है. इसलिए मौजूदा परिवेश में भाजपा के लिए यहा कामयाब होना बहुत जरूरी है.
केन्द्रीय रेलमंत्रीजी फिलहाल एक सभा में कहा कि भाजपा को अगले लोकसभा चुनावों मे लगभग 300 सीटें मिलेगी. यह बात उनके लिए एक मार्केट रिसर्च कंपनी ने सितम्बर मे किए हुए देशव्यापी सर्वेक्षण (सितम्बर जिसमे लगभग 4.5 लाख मतदाताओ से बात की गई थी) से प्रतीत हुईं. हालांकि राज्य और केंद्र के चुनाव ये अपनेआप मे अलग-अलग विषय है लेकिन हवा का रुख माने तो भाजपा को फायदा होता दिख रहा है.
मई २०१४ मे केंद्र मे भाजपा की सरकार बनी, और उसके लगभग छह महीने बाद महाराष्ट्र मे विधानसभा चुनाव घोषित हुए तो पार्टी के राज्य के कुछ नेताओं ने मांग की भाजपा को राज्य के २८८ विधानसभा क्षेत्रों मे से लगभग १७७ विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी, सो वे इसी को आधार मानकर शिवसेना से गठबन्धन चाहते थे. लेकिन बात नहीं बनी और दोनों पार्टिया अलग-अलग लड़ी, हालाँकि पिछले चार सालों से दोनों पक्ष साथ मे मिलकर सरकार चला रहे हैं. फिलहाल महाराष्ट्र राज्य मे काफी हद तक एक साफ सुथरी, स्थिर और "काम करने वाली" सरकार है.
अगर हम रेल मंत्रीजी के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण के नतीजे को समझे तो ये पता चलता है कि भाजपा इन तीनों राज्यों की बहुतांश विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखेंगी. लेकिन वही पर अगर राज्यों के सर्वेक्षणों पर नजर डाले तो भाजपा यहा पर बहुत अच्छा कर पाएगी ऐसा प्रतीत नहीं होता. यह विरोधाभास है.
ख़ैर ११ दिसम्बर को जब इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सामने आएँगे तो काफी सारी नई परते खूलेंगी, काफी नई चीजे सामने आएँगी, जिनसे हो सकता है कि आने वाले वक्त में कई नए समीकरण बने.
अगर हम दोनों विषयों का विश्लेषण करे तो यह पता चलेगा कि अगर इन तीन राज्यों मे अगर सत्ता बदलाव हुआ तो पार्टी के कुछ शीर्ष नेता केन्द्रीय राजनीति में फिर से सक्रिय होते नजर आएंगे या फिर होना चाहेंगे. पार्टी के लिए यह कितना फायदेमंद है या फिकर की बात है यह बताना मुश्किल है. क्योंकि जब पार्टियों के बीच का संघर्ष एक नतीजे पर पहुँचता है उसके बाद पार्टियों में पार्टी अन्तर्गत संघर्ष शुरू होता है. भाजपा मे यह संघर्ष कितना होगा और अगले लोकसभा चुनावों से पहले हवा कितनी स्थिर होगी इस बाब पार पार्टी के शीर्ष नेतागण अभी से चिंतित होंगे. शायद इसी वजह से इन तीनो राज्यों मे पार्टी एडीचोटी का जोर लगा रही है.
पार्टी के सर्वोच्च नेता पहले से ही न्याय व्यवस्था (judiciary), आर्थिक व्यवस्था (रिजर्व बैंक के साथ तनातनी) , जांच व्यवस्था (सिबीआय) के साथ संघर्षशीत है. प्रसार माध्यम इन नेताओं से कितना "प्रेम" करते हैं यह "सूरज को दिया दिखाने" जैसा होगा. साथ ही मे "केंब्रिज एनालिटिक, फेसबुक, गूगल" जैसी विदेशी संस्थाएं भारतीय राजनीति पर विशेष नजर लगाए हुए हैं.
कॉंग्रेस की बात करे तो, मेरे खयाल से "ऊंट ने करवट" बदली पिछले अगस्त मे. यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके गुजरात के एक शीर्ष नेता अपनी राज्यासभा की सीट बचाने मे "कामयाब" हो गए. यह "कामयाबी" इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि पार्टी के विधायको का एक बड़ा तबका शंकरसिंह वाघेला की बगावत की तरफ बढ़ रहा था. बात इतनी बढ़ गयी कि पटेल साहब ने अपने ४८ विधायकों को बंगलोर "भेज" दिया. खैर अंत में वे अपनी सीट बचा पाने मे कामयाब जरूर हुए लेकिन अगर सत्ता के गलियारों की माने तो इसकी "मशक्कत और लागत" काफी बड़ी थी. इतनी बड़ी "मशक्कत" को अंजाम देने के लिए जो "दाना पानी" का इंतजाम किया गया होगा वो काफी "बड़ा और विविध रंगी" होगा इसमे कोई दो राय नहीं होनी चाहिए. सवाल यह है कि 2014 के लोकसभा बुरी तरह से हारने बाद, पार्टी की माली स्थिति पर 2017 तक कुछ ना कुछ तो बुरा असर तो जरूर गिरा होगा, इनमे अगर आप 2014 से जून 2017 तक हुए विधानसभा चुनावों को जोड़े तो यह बात और गंभीर होगी.
लेकिन बावजूद इसके "बाबूभाई" अपनी सीट "काबिल" रख पाए. इससे एक बात स्पष्ट होती है कि विपक्षी पार्टियों की तरह कुछ "चुनावी थैलिया" भी शायद महागठबंधन बना रही है. इसका असर कुछ उपचुनावों मे भी दिखाई दिया.
हालांकि इन उपचुनावों के नतीजों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई तो कोई गलत नहीं क्यूंकि इससे भाजपा को बहुत कुछ नुकसान नहीं हुआ, अगले चुनावो के लिए महज ६ -८ महीने रहते इसका खासा असर नहीं होता. साथ ही मे पार्टी को कुछ नसीहत मिली होगी. या फिर यह इनके अगले चुनावो की रणनीति होगी.
लेकिन एक बात को नजरअंदाज करना भाजपा के लिए महंगा हो सकता है, वह है, ऊंट की चाल. ऊँट ने गुजरात मे काफी लंबी दौड़ लगाई हालांकि उसे मनचाही सफलता नहीं मिली, लेकिन पार्टी मे इससे विश्वास की उम्मीद जागी. कर्नाटक मे तो उंट की चाल और बुद्धि "बहुत तेज" दिखाई दी.
"चुनावी थैलिया" सोच रही होगी कि "दाँव" किधर लगाए.
मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, इनसॉल्वंसी कोड रूपी जो कुछ "कड़वी" दवाईयां पिलाई है (हालाँकि ये मेरा व्यक्तिगत मत नहीं है) उससे इन "चुनावी थैलियो" की संख्या या क्षमता कम जरूर हो गई होगी. साथ ही में मोदी सरकारने सत्ता मे आते ही जिस तरीके से कुछ विदेशी "गैरसरकारी संस्थाओं (NGO)" की जांच की या फिर उनकी फंडिंग की नकेल कसी शायद इन्ही वजहो से विदेशी संस्थाओ की "दिलचस्पी" भारतीय चुनावों में अधिक हो गई होगी. इसका नतीजा कभी कभी चर्च के पादरियों द्वारा लिखे गए पत्र में दिखाई देता है. अगर कांग्रेस अध्यक्ष के रफाल सौदे संबंधी बयानों को समझे तो उनसे पार्टी का तगड़ा "फ्रेंच कनेक्शन" नजर आता है. पिछले राष्ट्राध्यक्ष ओलैंड ने जिस तरीके से रफाल सौदे के संबंध मे बयान दिए हैं उससे तो यही जाहिर होता है. यह संघर्ष और धारदार होते दिख रहा है.
इसका सार या "लब्बोलुबाब " ये है कि भाजपा को आने वाले वक्त मे कड़ी परीक्षा देनी होगी. पार्टी को किसीभी मुगालते मे रहना काफी महंगा पड़ सकता है.
अगर भाजपा इन तीन राज्यों मे अपने बल पर सरकार नहीं बना पाई तो इसका परिणाम क्षेत्रीय राजनीति पर जरूर होगा. आनेवाले "महागठबंधन" पर होगा. जो कोई दल या नेता इस "महागठबंधन" मे जाने की संभावना रखते हैं उन्हें रोकने की किमत बहुत बढ़ सकती है. हर बार जांच या फ़ाइल काम नहीं करती.
महाराष्ट्र मे अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. अगर भाजपा इन तीनो राज्यों की सत्ता से बाहर हो जाती है तो शिवसेना, एनसीपी और कुछ छोटे दलों की "मोलतोल क्षमता (बार्गेनिंग पावर)" बढ़ जाएगी या फिर वे थोड़े कम लचीले हो जाएंगे. हालांकि शिवसेना ने भाजपा का भरोसा नहीं तोड़ा, साथ ही मे पार्टीप्रमुख उद्धव ठाकरे और राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के संबंध काफी अच्छे हैं. दोनों के बीच संवाद है. लेकिन राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. विशेषत महाराष्ट्र मे, क्योंकि यहा पर सभी पक्षों के मित्र "श्री शरद पवार जी " का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता.
इसी वजह से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस इस पसोपेश में होंगे कि राज्य में चुनाव कब कराए. अगर उनकी पार्टी इन तीन राज्यों मे चुनाव हारती है तो शायद वे मोदी सरकार की लोकप्रियता का साथ लेकर लोकसभा चुनावों के साथ राज्य के चुनाव कराने के पक्ष में हो सकते हैं.
अगर वे लोकसभा चुनावों के बाद राज्य में चुनाव कराते हैं उसके लिए पार्टी का लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन जरूरी है.
फिलहाल तो वे उनके पसंदीदा (पेट) प्रोजेक्टस को रफ्तार देते हुए नजर आ रहे हैं. मराठा आरक्षण का विषय भी कुछ हद तक अपनी मंजिल पहुँचता दिख रहा. पार्टी की तरफ से राज्य मे "CM चषक" के अन्तर्गत सभी २८८ विधानसभा क्षेत्रों मे खेल और कला स्पर्धाओं का आयोजन किया गया है. यह "खेला" जनवरी तक जारी रहेगा. इससे तो यही लगता है कि वे अपना मन बना चुके हैं.
कुछ भी हो, "अब क्या होगा?" यह प्रश्न फिर भी सताता रहेगा. इससे निजात पाए और खुश रहे.
किसी ने सच ही कहा है,
"क्यों डरे कि जिंदगी में क्या होगा,
हर वक़्त क्यों सोचे की बुरा होगा !!
बढ़ते रहे बस मंजिल की और
हमें कुछ मिले या न मिले,
तज़ुर्बा तो नया होगा!!"
- धनंजय मधुकर देशमुख
मुंबई
21 नवम्बर 2018
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